सपनों की कोई सीमा नहीं होती, तमाम तोहमतों के बावजूद हसरत कभी कम नहीं होती। अड़चनों की आंधियां और तकलीफों के तूफान को भी हुनर और हौसलों की बयार के आगे अपना रुख बदलना पड़ता है। हमारे आज के नायक के जीवन संघर्ष की कहानी इन लाइनों को शब्द दर शब्द सच साबित करती है। इस कहानी को सामने लाने का मकसद भी सिर्फ यही है कि आज देश के युवा सीख सकें कि जिंदगी के पथरीले सफर में सपनों का पीछा कैसे किया जाता है।
ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकलकर प्रशासनिक महकमे में अपनी अलग पहचान बनाने वाले विजय डेहरिया ने साल 2018 के MPPSC में एससी कैटेगरी में पूरे प्रदेश में टॉप किया था। ओवर ऑल उनकी 36वीं रैंक थी।
विजय डेहरिया का जन्म 10 अक्टूबर 1989 में सिवनी जिले के लखनादौन के जमुआ गांव में हुआ। 1500 की आबादी वाला ये इलाका आज भी बेहद पिछड़ा हुआ है। आजादी के इतने बरसों बाद भी बुनियादी सुविधाएं यहां के बाशिंदों को मयस्सर नहीं है। इतना बैकवर्ड की दो सौ घरों में महज पांच लोग ग्रेजुएट हैं, जिनमें से एक विजय और एक उनके छोटे भाई हैं। पूरे गांव में महज दो या तीन लोग सरकारी नौकरी में हैं बाकी सब मजदूरी करके अपनी आजीविका चलाते हैं। गांव के लोगों को बस पकड़ने के लिए भी मीलों पैदल चलकर दूसरे गांव तक जाना पड़ता है।
विजय बचपन से ही मेधावी छात्र थे। उनकी पहली से पांचवी तक की पढ़ाई गांव के सरकारी स्कूल में हुई। गांव के सरकारी स्कूल में उस वक्त एक ही शिक्षक हुआ करते थे। लिहाजा स्कूल खोलने से लेकर साफ-सफाई करने और टाट पट्टी बिछाने से लेकर घंटी बजाने तक का काम उन्हें करना पड़ता था।
विजय की शुरूआती पढ़ाई गांव के ही शासकीय प्राथमिक स्कूल से हुई। वो हर रोज 8 किमी का लंबा सफर तय करके स्कूल जाते थे। विजय बताते हैं कि 6वीं कक्षा में लखनादौन के सरकारी स्कूल में दाखिला लेने के बाद उन्होंने पहली बार एबीसीडी सीखी या फिर यूं कह लीजिए कि पहली बार उन्हें पता चला कि अंग्रेजी भी कोई विषय है। फिर 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई सिवनी के गवर्मेंट एक्सीलेंस स्कूल से हॉस्टल में रहते हुए की। हॉस्टल से स्कूल की दूरी चार किलोमीटर से भी ज्यादा थी। जिसे विजय पैदल ही तय किया करते थे क्योंकि उनके पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वो एक साइकिल तक खरीद सकें।
बेहद बैकवर्ड गांव से ताल्लुक रखने कारण विजय को बचपन में पढ़ाई की अच्छी सुविधा नहीं मिल सकी। घर में बड़े होने के कारण शुरू से जिम्मेदारियों का बोझ, ग्रामाीण परिवेश में संसाधनों की कमी, आर्थिक चुनौतियों समेत कई दुश्वारियां… लेकिन विजय ने तमाम संघर्षों के बीच कभी अपना हौंसला कम नहीं होने दिया और अफसर बनने के अपने सपने को भी जिंदा रखा। उन्होंने कभी भी गरीबी और आर्थिक तंगी को अपनी मेहनत के ऊपर भारी नहीं पड़ने दिया।
साल 2007 में विजय का AIEEE और पीईटी दोनों में चयन हो गया और उन्हें जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला भी मिल गया। लेकिन घर की वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं थी कि वो पढ़ाई की फीस भर सकें। जिसके चलते उन्होंने 2008 से घर-घर जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और अगले तीन साल तक 6वीं से लेकर 12वीं क्लास के कई स्टूडेंट्स को ट्यूशन दिया। विजय के मुताबिक ट्यूशन पढाने का उन्हें काफी फायदा हुआ। फीस के पैसों के इंतजाम के साथ-साथ उनका जनरल नॉलेज और आत्मविश्वास भी बढ़ गया।
पढ़ाई पूरी करने के बाद विजय ने छोटी-मोटी नौकरी तो ज्वाइन कर ली लेकिन उन्हें अपने काम से सन्तोष नहीं था। कुछ अलग पाने की चाहत लगातार उनके मन में चलती रहती थी।
साल 2013 में मध्यप्रदेश में फारेस्ट गॉर्ड की नौकरी निकली और बेरोजगार से पीछा छुड़ाने के लिए विजय ने भी इस नौकरी के लिए आवेदन दिया। संयोगवश उनका चयन भी हो गया और सिवनी जिले के शिकारा में ज्वाइनिंग मिली। उस वक्त शिकारा में ना तो किसी मोबाइल का नेटवर्क था और ना ही कोई ग्रुप या उनके जान-पहचान के लोग। इन दस महीनों के दौरान विजय ने जमकर पढ़ाई की जबकि अभी तक ये भी तय नहीं किया था कि उन्हें पीएससी निकालना है। हालांकि इस बात का यकीन जरूर था कि एजुकेशन और पढ़ाई कभी बर्बाद नहीं जाएगी और जिंदगी में कुछ ना कुछ जरूर मिलेगा।
संकल्पों को अंजाम तक पहुंचाना आसान नहीं होता। लेकिन विजय ने कभी अपनी ख़्वाहिश धुंधली नहीं पड़ने दी। जैसे-तैसे खुद के बूते तैयारी करके फारेस्ट गार्ड तो बन गए लेकिन एक बड़ा अधिकारी बनने का सपना उनके जेहन में तैरता रहा। फारेस्ट की नौकरी के दौरान जंगलों में भटकते हुए वो आगे की तैयारियां करते रहे। कई बार मन कमजोर पड़ा लेकिन संकल्प उस जिद को पूरा करने का हौसला देता था कि एक दिन प्रशासनिक अफसर बनकर घर और गांव का नाम रोशन जरूर करना है।
साल 2014 में विजय जबलपुर में सेंट्रल गवर्मेंट के आर्डिनेंस डिपो का एग्जाम देते हैं और जूनियर मटेरियल असिस्टेंट के पद पर उनका चयन भी हो जाता है। वो फॉरेस्ट की नौकरी छोड़कर एक बार फिर जबलपुर का रूख करते हैं। इसी दौरान एक दोस्त उन्हें पीएससी की तैयारी करने की सलाह देता है और विजय आर्डिनेंस फैक्ट्री की जॉब के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी शुरु कर देते हैं।
विजय ने पहली बार साल 2013 में एमपीपीएससी का फार्म भरा और प्रीलिम्स क्लियर किया लेकिन मेंस में चूक जाते हैं। साल 2014 के एग्जाम में असफलता मिलने के बाद वो साल 2015 में फाइनल इंटरव्यू तक पहुंचने के बाद भी एक या दो नंबर से रुक जाते हैं। 2016 में तीसरे प्रयास में वो प्रीलिम्स तक क्लियर नहीं कर पाते। वहीं साल 2017 में एक बार फिर फाइनल इंटरव्यू तक पहुंचने के बाद वो चयन से चूक जाते हैं।
लगातार पांच प्रयास में मिली असफलता के बाद विजय की जिंदगी में भी हताशा का दौर शुरू हो जाता है। निराशा और अवसाद की काली रात, हर तरफ मुश्किलें और हार का भय। चुनौतियां मुंह बाए अपने विकराल रूप में खड़ी रहीं, लेकिन इन सबसे बेखबर विजय अपनी मेहनत और अदम्य साहस के साथ जुटे रहे काली रात को भोर में बदलने के लिए। कई बार ऐसा लगा कि नहीं, शायद अब और नहीं मगर तभी उन्हीं अंधेरों के बीच से जिंदगी ने कहा कि देखो उजास हो रहा है। लिहाजा पिछली तमाम असफलताओं को भूलकर और पुरानी कमियों को दूर कर विजय एक बार फिर नई उम्मीद के साथ तैयारी में जुट जाते हैं।
अतीत के पन्नों को पलटते हुए विजय कहते हैं कि संघर्ष जीवन को निखारता है। मेरे पास न रहने के लिए घर था और न पढ़ने के लिए पैसे, था तो सिर्फ हौसला, जो सपनों को पूरा करने के लिए काफी था।
पॉजिटिव इंडिया से बात करते हुए विजय डेहरिया बताते हैं कि डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयन होने के बाद जब वो पहली बार अपने गांव जमुआ पहुंचते हैं, तो उनका जोरदार स्वागत होता है। आख़िर होता भी क्यों नही? वो अब मिसाल बन चुके थे। उन्होंने अपने हौसले के बलबूते यह साबित करके दिखाया था कि अगर करना चाहो तो इस दुनिया में कुछ भी मुश्किल नहीं है।
अपनी जिंदगी के सबसे यादगार लम्हे को याद करते हुए विजय कहते हैं कि सिविल सर्विस में सिलेक्ट होने के बाद जब वो अपने गांव-अपने घर पहुंचते हैं, तो उन्हें देखने पूरा गांव उमड़ जाता है। उनके स्वागत और सम्मान के लिए 1500 लोग खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं जबलपुर से अपने गांव जाने के दौरान रास्ते में धूमा से लेकर लखनादौन तक जगह-जगह स्कूलों में उनका सम्मान होता है। घर पहुंचने पर पिता जी पहली बार गले मिलकर रोते हैं, लेकिन उनकी आंखों में ये आंसू खुशी के होते हैं, गर्व के होते हैं। पिता का सीना फक्र से चौड़ा हो जाता है।
जब कोई युवा अपने अभावग्रस्त परिवार के हालात को पछाड़ते हुए देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में काबिज हो जाता है, तो पूरे समाज के लिए हीरो बन जाता है। विजय भी आज पूरे गांव के लिए रोल मॉडल बन चुके हैं। वो जमुआ गांव में डिप्टी कलेक्टर बनने वाले पहले शख्स हैं। अब गांव के बाकी युवक भी विजय की तरह बड़ा अधिकारी बनने का सपना लिए स्कूल जाते हैं। विजय जब भी गांव जाते हैं तो दूसरे युवाओं और युवतियों को भी पढ़ाई के लिए प्रेरित करते हैं। विजय का मानना है कि सिर्फ एजुकेशन के जरिए ही समाज में बदलाव और लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है।
विजय अपनी सफलता का श्रेय अनुशासन, कड़ी मेहनत और चुनौतियों के बीच लगातार कोशिश करते रहने की ललक को देते हैं। उनका मानना है कि जिंदगी में कोई भी टारगेट एचीव करने के लिए डेडिकेशन बेहद जरूरी है। आपको अगर अपनी जिंदगी में कामयाब होना है तो एक लक्ष्य निर्धारित कर ईमानदार कोशिश के साथ स्टेप बाई स्टेप आगे बढ़ना होगा। विजय आज सिविल सर्विस में जाने की तैयारी करने वाले छात्रों को प्रेरित करते हुए कहते हैं PSC का मतलब P से पेशेंश, S से सेक्रिफाइज और C से कमिटमेंट होता है।
सिविल सर्विस में जाने या फिर प्रशासनिक अधिकारी बनने के पीछे हर युवा की अपनी कोई ना कोई कहानी होती है, जब कोई लम्हा किसी के भीतर कुछ कर गुजरने की चिंगारी जला देता है। विजय ने भी 9वीं क्लास में ही तय कर लिया था कि उन्हें कोई क्लर्क या पटवारी नहीं बनना, बल्कि एक बड़ा प्रशासनिक अधिकारी बनना है और वैसा रुतबा हासिल करना है। अफसर बनने की प्रेरणा को लेकर विजय कहते हैं कि हॉस्टल में रहते हुए जाति प्रमाण पत्र बनवाने के दौरान उन्हें पता चला कि कास्ट सर्टिफिकेट बनाने से लेकर व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी और अधिकार एसडीएम के पास होता है। किसी भी काम के लिए एसडीएम की मंजूरी जरूरी होती है। अपनी नीति-योजनाओं के जरिए एक लोकसेवक आम आदमी की जिंदगी में बदलाव औऱ समाज के उत्थान का माद्दा रखता है। यही वो पल था जब उन्होंने तय कि बड़े होकर वो एक लोकसेवक बनकर अपने गांव-अपने समाज के विकास का कार्य करेंगे।
आज की भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में हम अक्सर भूल जाते हैं कि समाज के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है। हमारे आसपास कई ऐसे बच्चे हैं जो पैसों के अभाव में बड़े सपने नहीं देख पाते। ऐसी अनगिनत प्रतिभाएं हैं जो संसाधनों और सुविधाओं के अभाव में मंजिल तक नहीं पहुंच पाती हैं। ऐसे में इनकी मदद का बीड़ा उठाया है एक युवा अफसर विजय डेहरिया ने, जिन्होंने विपरीत परिस्थितयों के बीच सभी अभावों को पीछे छोड़ते हुए पहले खुद को एक खास मुकाम पर पहुंचाया और अब अपने जैसे जरूरतमंद युवाओं के भविष्य को संवारने और सही दिशा दिखाने का काम भी बखूबी कर रहे हैं।
अपनी इस मुहिम को लेकर विजय कहते हैं कि हमारे पास जो भी काबिलियत है, हमें उसे दूसरे लोगों को भी सिखाना चाहिए। इससे हमारी काबिलियत की सार्थकता और भी बढ़ जाती है।
विजय कहते हैं कि सिविल सर्विस में जाने के बाद उन्होंने तय किया कि अब वो अपने जैसे ग्रामीण गरीब युवाओं को भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे जिनके पास टैलेंट तो है, मगर हौसलों की कमी और मार्गदर्शन के अभाव में वो अफसर बनने का सपना भी नहीं देख पाते।विजय गरीब बस्तियों में शिक्षा की अलख जगाने और जरूरतमंदों की आर्थिक मदद करने के साथ ही अपनी व्यस्त जिंदगी से समय निकालकर खुद आदिवासियों विद्यार्थियों को पढ़ाने जाते हैं। विजय उन बच्चों को सिविल सर्विस की तैयारी कराते हैं, जो महंगी कोचिंग का सामर्थ नहीं रखते लेकिन पढाई का जज़्बा और लगन रखते हैं।
बिना किसी शान-ओ-शौकत में पले, बिना कोचिंग लिए एक मामूली परिवार से अपनी जीवन यात्रा शुरू कर प्रशासनिक अफसर बने विजय आज अगर अपने दौर के नौजवानों के लिए रोल मॉडल बन गए हैं, तो उनकी कामयाबी की मिसाल सिर्फ उनके जीवन का उजाला नहीं, बल्कि उनके हिस्से के जीवन का सबक पूरी युवा पीढ़ी की भी राह को रोशन कर रहा है। इसीलिए वह आज के नौजवानों को ये सीख देना भी अपनी जिम्मेदारी मान रहे हैं कि ‘वे हिम्मत न हारें क्योंकि उनकी मंज़िल उनका इंतज़ार कर रही है।
अपने जिद और जुनून के पराक्रम से जिंदगी के हर पड़ाव पर आने वाली परेशानियों को परास्त करने वाले विजय की धूप-छांव भरी जिंदगी की कहानी आज देश के कोने-कोने तक फैलाई जानी चाहिए, हर एक बच्चे को पढ़ाना चाहिए, हर नौजवान को समझाना चाहिए, ताकि वो मुसीबतों से डरकर भागने की बजाए चुनौतियों से लड़ना सीखें और डटकर मुकाबला करना सीखें।
पॉजिटिव इंडिया की कोशिश हमेशा आपको हिंदुस्तान की उन गुमनाम हस्तियों से मिलाने की रही है, जिन्होंने अपने फितूर से बदलाव को एक नई दिशा दी हो और समाज के सामने संभावनाओं की नई राह खोली हो।
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