अपने सपनों को लिए तो हर कोई जीता है लेकिन वो लोग बेहद खास होते हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं और उनके सपने साकार करने के लिए खुद को समर्पित कर देते हैं। ऐसी कई मिसालें हैं जब कोई चैरिटी या दूसरों की जिंदगी संवारने के लिए अपनी धन-दौलत, जायदाद सब कुछ दांव पर लगा देता है। लेकिन ये बात तब और भी खास हो जाती है जब कोई गरीब अपने खून-पसीने की मेहनत से की गई कमाई से दूसरों के सपनों को हकीकत के रंग देने की कोशिश करता है।
गरीबी में खुद नहीं कर सके पढ़ाई, तो मासूमों की जिंदगी रौशन करने की जिम्मेदारी उठाई
ये कानपुर के विनायकपुर में रहने वाले तीस साल के मोहम्मद महबूब मलिक हैं, जो आर्थित तंगी के कारण 10वीं की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई नहीं कर सके और उनका अफसर बनने का सपना अधूरा ही रह गया। लेकिन आज उन्होंने एक नहीं सैकड़ों बच्चों को अफसर बनाने का बीड़ा उठाया है। महबूब ने खुद के पैसों से एक चाय की दुकान खोली और इससे होने वाली आमदनी के दम पर बस्तियों में रहने वाले सैकड़ों गरीब बच्चों के हांथों में कलम-दवात पकड़ा दी। इतना ही इन बच्चों के लिए खुद के पैसों से स्कूल भी खोला। यहां तक कि कॉपी-किताब औऱ यूनिफार्म समेत दूसरी जरूरी चीजों के लिए खुद लोन तक लिया। महबूब शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा योगदान दे रहे हैं। इस देश के लिए महबूब जो कर रहे हैं, वो आसान नहीं है।
महबूब मलिक संसाधनों के अभाव में बमुश्किल हाईस्कूल तक ही पढ़ सके और हाईस्कूल पास करने के बाद रोज़ी रोटी के लिये मजदूरी करने लगे। महबूब कहते हैं कि जब किसी बच्चे को पढ़ने की उम्र में कूड़ा बीनते या भीख मांगते हुए देखता हूं तो मन विचलित हो जाता। उसमें उन्हें अपना बचपन दिखने लगता है।
चाय बेचकर रोज़ी रोटी कमाने वाले महबूब 40 ऐसे परिवारों के बच्चों की शिक्षा का बोझ उठा रहे हैं, जो आर्थिक हालत खराब होने के कारण बच्चों को स्कूल भेजने में समर्थ नहीं है। महबूब मलिक की कानपुर के शारदा नगर चौराहे के फुटपाथ पर एक छोटी सी चाय की दुकान है, जिससे होने वाली आमदनी का 80% इन बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर देते हैं।मोहम्मद महबूब मलिक घर में पांच भाईयों में सबसे छोटे थे। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता। परिवार बड़ा था और कमाने वाले सिर्फ एक। पिता मजदूरी करते थे और दिन-भर की दिहाड़ी के बाद जो कुछ भी मिलता उससे घर का चूल्हा जलता। महबूब अपनी जिंदगी में कुछ बनना चाहते थे। वो बचपन से ही पढ़ लिखकर कलेक्टर बन देश की सेवा करने का सपना देखते थे। लिहाजा घर की रोजी-रोटी के बाद जो पैसा बचता पिता उसे महबूब की पढ़ाई पर खर्च करते। कक्षा एक से लेकर दसवीं तक प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास करने के बाद जब 11वीं में दाखिले का नंबर आया तो पिता बीमार पड़ गए। जिसके कारण 12 साल की उम्र में महबूब को कापी-किताब की बजाए फावड़ा उठाना पड़ा। दिनभर की मेहनत-मजदूरी के बाद जो भी पैसा मिलता उससे घर का खर्च और पिता का इलाज होता। महबूब के जिंदगी के 18 साल इसी में गुजर गए।पॉजिटिव इंडिया से बातचीत के दौरान महबूूब बताते हैं कि पढ़ाई ना कर पाने की टीस उनके मन में हमेशा रहती थी। जब पढ़ने की उम्र में किसी बच्चे को मेहनत-मजदूरी करते देखता तो जज्बातों पर काबू रखना मुश्किल हो जाता था क्योंकि उन बच्चों में उन्हें अपना बचपन नजर आता। तभी उनके मन में एक ख्याल आया कि क्यों ना गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित रह जाने वाले मासूमों की मदद की जाए और शिक्षा के जरिए उनका भविष्य रौशन किया जाए। इसके बाद चाय की दुकान चलाने वाले मलिक पर गरीब बच्चों को पढ़ाने की ऐसी धुन सवार हुई कि उन्होंने अपनी जिंदगी भर की सारी कमाई ही इस नेक काम में लगा दी। महबूब महीने भर में जो भी कमाते हैं, सब गरीब बच्चों की कापी ,किताब, ड्रेस और पढ़ाई में खर्च कर देते हैं।
साल 2017 में मोहम्मद महबूब मलिक ने कानपुर के शारदा नगर में गुरूदेव टॉकीज के पास गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देने के लिए सेंटर की शुरूआत की। जब इस काम की जानकारी उनके दोस्त नीलेश कुमार को लगी तो उन्होंने मलिक का हौंसला बढ़ाया और एक एनजीओ बनाकर सेंटर संचालित करने की सलाह दी। जिसके बाद मलिक ने ‘मां तुझे सलाम फाउंडेशन’ नाम से एक एनजीओ बनाया और इसी के जरिए सेंटर में 40 परिवारों के सैकड़ों बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दी जा रही है।
सलाम है चाय बेचकर शिक्षा की अलख जगाने वाले महबूब भाई को
एजुकेशन की अहमियत को समझने वाले महबूब मलिक सबसे पहले काशीराम कॉलोनी समेत आसपास की मलिन बस्तियों में गए। फिर वहां गुजर-बसर करने वाले परिवारों को समझाने की कोशिश कि उनके बच्चे भी पढ़-लिखकर अपनी जिंदगी में बड़ा मुकाम हासिल कर सकते हैं और गरीबी के दलदल से बाहर निकल सम्मान के साथ एक बेहतर जिंदगी जी सकते हैं। हालांकि शुरू-शुरू में उन्हें निराशा हांथ लगी लेकिन मलिक ने हार नहीं मानी और इन बस्तियों में जाकर जैसे-तैसे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी और लोगों को भी उनकी बातों पर भरोसा होने लगा। आज महबूब एक किराए की बिल्डिंग में चालीस बच्चों को एजुकेट कर रहे हैं। अब तक वो साढ़े तीन सौ से ज्यादा बच्चों को शिक्षित कर चुके हैं।
हर महीने खर्च होते हैं 25-30 हजार
महबूब मलिक कहते हैं कॉपी-किताबें, स्कूल की यूनिफार्म, स्टेशनरी, जूते-मोजे और स्कूल बैग खरीदकर बच्चों को एक बार दिया जाता है।स्कूल किराए की बिल्डिंग में चल रहा है, जिसका किराया ही 12 हजार रुपए प्रतिमाह है।
महबूब मलिक की स्कूल में फिलहाल तीन टीचर है जो मासूमों की जिंदगी संवारने का काम बखूबी कर रहे हैं। ये सभी शिक्षक महबूब के पाक मंसूबों से इतने प्रभावित हैं कि इन्होंने बच्चों को पढ़ाने के बदले पैसे तक लेने से इनकार कर दिया। स्कूल की एक टीचर मानसी शुक्ला बीएड कर चुकी हैं और टेट की तैयारी कर रही हैं। दूसरे टीचर पंकज गोस्वामी मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हैं, जो पहले बच्चों को पढ़ाने स्कूल आते हैं और फिर अपने काम पर जाते हैं। वहीं तीसरी टीचर आकांक्षा पांडे हैं, जो फिलहाल बीएड कर रही हैं।
मुफ्त की चाय
महबूब मलिक की चाय की दुकान कोचिंग और मंडी के बीच में है। आईआईटी, सीपीएमटी, इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले ज्यादातर छात्र आसपास ही रहते हैं। जब प्रतियोगी परीक्षाएं होती है तो महबूब छात्रों को निशुल्क चाय पिलाते हैं। मलिक ने अपनी दुकान पर वाकायदा एक स्लोगन भी लिख रखा है- ‘‘मां जब भी तुम्हारी याद आती है, जब तुम नहीं होती हो तो, मलिक भाई की चाय काम आती है।’’ महफूज बताते हैं कि शुरुआत में लोगों ने उनका खूब मजाक भी बनाया लेकिन उन्होंने कभी किसी की बातों की परवाह नहीं की और खुद को जो अच्छा लगता है, वो काम करने से कभी पीछे नहीं हटता।
मलिन बस्तियों में रहने वाले ये बच्चे अगर इस स्कूल में नहीं होते तो गलियों में भटक रहे होते या फिर कूड़ा बीनने जैसा काम कर रहे होते। यही वजह कि इन बच्चों को स्कूल में पढ़ता देख आज उनके अभिभावक महबूब मलिक को दिल से दुआएं देते हैं।
चाय बेचकर समाज के निचले तबकों के बच्चों को एजुकेट करने का बीड़ा उठाने वाले महबूब को यकीन है एक न एक दिन इसी चाय की दुकान से कई कलेक्टर, डॉक्टर,साइंटिस्ट और मास्टर निकलेंगे, जो देश की सेवा करने के साथ ही अपना और पूरे शहर का नाम रोशन करेंगे।
पूर्व क्रिकेटर वीवीएस लक्ष्मण भी महबूब के कायल…
भारतीय टीम के पूर्व क्रिकेटर और टेस्ट के महान बल्लेबाज वीवीएस लक्ष्मण भी महबूब द्वारा देश और समाज के हित में किए जा कार्य के कायल रह चुके हैं। उन्होंने एक ट्वीट करते हुए महफूज की जमकर तारीफ की थी। दरअसल कोरोना की पहली लहर के दौरान बाकी लोगों की तरह महबूब को भी काफी आर्थिक चुनौतियां का सामना करना पड़ा लेकिन महबूब मलिक नहीं चाहते थे कि इसका असर बच्चों की पढ़ाई पर लिहाजा उन्होने बैंक ऑफ बड़ौदा से पचास हजार का लोन लेकर शैक्षणिक कार्य जारी रखा। मलिक के ऐसे जज्बे ने उनके इरादे साफ जाहिर किए कि अपनी जिंदगी में जिस चीज को वो खुद नहीं पा सके, उसकी कमी वो उन बच्चों को नहीं होने देना चाहते।
समाज के लिए मिसाल हैं महबूब….हर इंसान के जीवन में बहुत सारी ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वो चाह कर भी नहीं पा पाता। लेकिन, जिंदगी यहीं थमने का नाम नहीं होती। गाहे-बगाहे समाज में ऐसे उदाहरण सामने आते रहते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी तमाम विषमताओं को दूर करते हुए जिंदगी आगे बढ़ते हैं और दूसरों के लिए उम्मीद की एक करण बनकर उभरते हैं। महबूब खुद तो घर की खराब माली हालत के कारण दसवीं क्लास से आगे पढ़ाई पाए लेकिन उन्होंने ठाना है कि जिस चीज से वो महरूम रह गए, उसे अगली पीढ़ी के साथ नहीं होने देंगे।