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बारह बरस में घूरे के भी दिन फिर जाते हैं! संघर्ष के दिनों में नवाजुद्दीन सिद्दिकी की मां उन्हें अक्सर यही कहा करती थीं- “बेटा एक दिन घूरे के भी दिन फिर जाते हैं तेरे भी फिरेंगे!” आप दुनिया में जिसे सबसे ज़्यादा चाहते हों उसका अटूट विश्वास कई बार ऐसी अकल्पनीय सफलता दे जाता है कि देखने वालों की आंखें अचरज से चौड़ी हो जाती हैं। अब नवाजुद्दीन सिद्दिकी को ही ले लीजिए। 22 साल पहले एनएसडी से एक्टिंग और थिएटर का कोर्स करके निकले छोटे कद और बेहद साधारण सी शक्ल-सूरत वाले लड़के को देखकर भला कौन अंदाजा लगा सकता था कि एक दिन वो बड़ा स्टार बनकर फिल्म इंडस्ट्री के ‘ए’ लिस्टर्स में शुमार हो जाएगा।

‘अदाकारी के हुनर से कामयाबी के शिखर तक’nawazuddin siddiqui

अभिनय की बेजोड़ कला के बूते बॉलीवुड की बुलंदियों तक पहुंचने वाले नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने हाल ही में 19 मई को अपनी जिंदगी के 47 बरस पूरे किए। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की शक्ल-सूरत किसी भी आम भारतीय जैसी ही है, लेकिन अदाकारी का हुनर लाजवाब है, नायाब है और बेमिसाल भी। 

स्ट्रगल के दिनों में नवाज़ के रूममेट रहे उनके कुछ दोस्त अब भी इस बात पर रश्क करते हैं कि उन्हें नवाज़ सी सफलता क्यों नहीं मिली? जवाब बिल्कुल सीधा है, शेर कितना भी भूखा क्यों न हो वो घास नहीं खाता। नवाज़ भी अगर चाहते तो 1999 में एनएसडी से निकलने के बाद ‘सरफरोश’(1999), ‘शूल’(1999), रामगोपाल वर्मा की ‘जंगल’(2000) और राजकुमार हिरानी की ‘मुन्ना भाई MBBS’ (2003) जैसी फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं करते हुए अपना सफर आगे बढ़ा सकते थे। अगर आप को याद हो तो रामगोपाल वर्मा की ‘जंगल’ में ‘सिप्पा’ का छोटा सा किरदार निभाने के बाद राजपाल यादव की गाड़ी इसी तरह कॉमेडी के रास्ते चल पड़ी थी, ऐसे ही नवाज़ भी शायद चाहते तो तभी पार लग जाते। लेकिन मुश्किल यही है कि नवाज़ के चाहने या ना चाहने से कुछ नहीं हो रहा था। नवाज खुद भी संघर्षों से घबराकर छोटे-मोटे रोल पाने के लिए भागते फिर रहे थे क्योंकि नवाज़ के सामने सवाल स्टार बनने का था ही नहीं, उन्हें तो मुंबई में टिके रहने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा था। उनके सैटर्न रिटर्न ने उन्हें कैसे-कैसे संघर्ष की भट्टी में तपाया यह आप खुद ही देख लीजिए।nawazuddin siddiqui childhood photo

19 मई 1974 को मुजफ्फरनगर के बुधना में जन्में नवाज एक किसान परिवार से हैं। उत्तराखंड में केमिस्ट्री से ग्रेजुएशन करने के बाद वे एक साल वडोदरा में कैमिस्ट की नौकरी भी कर चुके हैं। लेकिन नवाज को जल्द ही एहसास हो गया कि उन्हें कुछ और ही करना है। इसी उहापोह में वे नौकरी छोड़-छाड़ दिल्ली पहुंच गए। जहां थिएटर करते हुए उन्हें एनएसडी के बारे में पता चला। बहरहाल एनएसडी की पढ़ाई खत्म करने के बाद वे दिल्ली छोड़ मुंबई आ गए और उन्हें थोड़ा बहुत काम भी मिल गया।

कभी मिलते थे चोर-वेटर के किरदार, आज सुपर स्टारnawazuddin siddiqui

एक छोटे से गांव से निकलकर फिल्मी दुनिया की ऊंचाइयों तक पहुंचने का नवाजुद्दीन का सफर कभी इतना आसान नहीं रहा। शूलों से भरे इस सफर पर उन्होंने कई ठोकरें खाई, कई बार असफलता से हताश हुए, मुफलिसी  के तमाम रंग देखे, वॉचमैन की नौकरी की, यहां तक कि पापी पेट के लिए मसाले बेंचने का भी काम किया।

nawazuddin siddiquiनवाजुद्दीन सिद्दिकी के संघर्ष का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक छोटे से रोल के लिए भी सौ बार से ज्यादा ऑडिशन दिए। 1999 में आई हिंदी फिल्म ‘सरफरोश’ से बॉलीवुड में उन्हें डेब्यू तो मिल गया लेकिन बेहद छोटा रोल होने के कारण किसी ने भी उनके किरदार को नोटिस नहीं किया। इस फिल्म में नवाजुद्दीन क्रिमिनल बने थे। इसके बाद उन्होंने शूल और दिल पे मत ले यार जैसी कई फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए। फिर संजय दत्त की फिल्म ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ में नवाज नजर आए। फिल्म ने दर्शकों की नब्ज पकड़ कर बंपर कमाई की और सुपर हिट साबित हुई लेकिन अदद एक पहचान के लिए तरस रहे नवाज के करियर को जादू की झप्पी नहीं दे सकी। इसमें नवाज ने एक चोर का किरदार निभाया था, जो स्टेशन पर संजय दत्त के पिता का पर्स चुरा लेता है। इतनी फिल्मों में काम करने के बाद भी नवाज को वो हासिल नहीं हुआ जिसके लिए वो रात दिन मेहनत कर रहे थे।nawazuddin siddiqui rare photo

फिर 2001 में शुरू हुआ उनका सैटर्न रिटर्न उन्हें ऐसे मोड़ पर ले आया जब वे किसी भी तरह के काम की तलाश में निकलने लगे। स्टार बनना तो दूर की बात है, उन्हें पेट भरने के लिए भीड़ में खड़ा होने से भी गुरेज़ नहीं रहा। इस दौरान राजकुमार हीरानी की ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’(2003) में एक पॉकेटमार के छोटे से किरदार को छोड़कर नवाज को कोई बड़ा रोल हाथ नहीं लगा। उन्हें लगने लगा था कि शायद वो यूं ही खर्च हो जाएंगे।

nawazuddin siddiqui 29-30 साल की उम्र में नवाजुद्दीन सिद्दिकी को अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक-फ्राइडे’(2004) फिल्म में मौका मिला। यह फिल्म उनका सैटर्न रिटर्न खत्म होने के एक साल बाद यानी 2007 में रिलीज़ का मुंह देख पाई। लेकिन तब शायद उन्हें खुद भी अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्राइडे’ और सैटर्न रिटर्न का यह खेल उन्हें इतना आगे लेकर जाएगा जहां से किसी भी साधारण से(नॉन-ग्लैमरस) दिखने वाले एक्टर के लिए सफलता की नई इबारत ही लिख जाएगा।nawazuddin siddiquiफिर हुआ भी वही,‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’(2012) हो या फिर ‘सीक्रेड गेम्स’(2018) नवाज़ुद्दीन सिद्धिकी के अभिनय को कामयाबी की ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अनुराग कश्यप की ही फिल्मों का सबसे बड़ा हाथ रहा। हालांकि नवाज़ ‘कहानी’(2012) से लेकर बजरंगी भाईजान(2015) जैसी बेहद सफल व्यवसायिक फिल्मों में भी नज़र आ चुके हैं।nawazuddin siddiquiखैर यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि ’12 साल में घूरे के भी दिन फिरते हैं’ वाली की तर्ज पर नवाज़ का संघर्ष-काल भी पूरे 12 साल का रहा लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प बात भी यही है कि सैटर्न रिटर्न के दौरान उनकी अनुराग कश्यप से हुई ट्यूनिंग ही उनके करियर की सबसे मीठी धुन बनकर जब-तब निकलती रही है।nawazuddin siddiqui

सैटर्न रिटर्न दरअसल पाश्चात्य ज्योतिष का एक सिद्धांत है। सैटर्न रिटर्न की मान्यता के अनुसार किसी भी व्यक्ति के जीवन में 27वें से लेकर 32वें वर्ष के बीच बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं। जीवन में जटिलता ऐसे घुल जाती है जैसे पानी में नमक और चीनी। एक भयंकर छटपटाहट और बेचैनी पैदा होती है। इस परिस्थिति से पार पाने का एक ही तरीका है, उस X-Factor की खोज जो आपका होना तय करे… जो यह साहस जुटा लेते हैं वे पार लग जाते हैं बाकी एक किस्म के अफसोस की परछायी से जीवनभर बचने की कोशिश करते रहते हैं।

Pankajj Kourav_Pozitive indiaStory by Pankajj Kourav

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