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“पहले समझिए SATURN RETURN होता क्या है”


सैटर्न रिटर्न दरअसल पाश्चात्य ज्योतिष का एक सिद्धांत है। सैटर्न रिटर्न की मान्यता के अनुसार किसी भी व्यक्ति के जीवन में 27वें से लेकर 32वें वर्ष के बीच बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं। जीवन में जटिलता ऐसे घुल जाती है जैसे पानी में नमक और चीनी। एक भयंकर छटपटाहट और बेचैनी पैदा होती है। इस परिस्थिति से पार पाने का एक ही तरीका है, उस X-Factor की खोज जो आपका होना तय करे, जो यह साहस जुटा लेते हैं वे पार लग जाते हैं बाकी एक किस्म के अफसोस की परछायी से जीवनभर बचने की कोशिश करते रहते हैं। 

Film actor saurabh shukla अपनी कमज़ोरी को ही कोई अगर अपनी सबसे बड़ी ताकत बना ले, तो किस्मत भी गच्चा खा जाती है। सौरभ शुक्ला भी अगर भेजा खरोचते हुए सिर्फ ज़्यादा से ज़्यादा काम हासिल करने में दिमाग लगाते, तो अब तक कबके खर्च हो जाते। ‘बैंडिट-क्वीन’ के बाद जब सौरभ ‘तहकीकात’ जैसे चार-पांच टीवी शोज में बिज़ी हो गए थे, तब निर्देशक सुधीर मिश्रा ने उन्हें एक दिन फोन करके कहा, इतना टीवी-टीवी करोगे तो तुममें कोई किरदार ढूंढ़ना मुश्किल हो जाएगा। बस सौरभ ने टीवी से तौबा कर ली। फिर लंबी मुफलिसी के बाद एक्टर और पटकथा लेखक के रूप में उनके जीवन में रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ घटित हुई। वैसे भी बॉलीवुड के हर एक दौर में उनकी जैसी कदकाठी वाले कई मसखरे अभिनेता रहे हैं जिन्हें एक तय वक्त तक काम मिलने में ख़ास दिक्कत नहीं हुई। लेकिन वे सब जल्द ही टाइपकास्ट हो गए और नए दौर में उनकी जगह नए अभिनेताओं ने ले ली, पर कल्लू मामा ने दिमाग की न सुनकर दिल की सुनी और बैंडिट-क्वीन(1994), सत्या(1998), युवा(2004), बर्फी(2012), पीके(2014), जॉली एलएलबी-2(2017) और रेड(2018) जैसी फिल्मों में शानदार अभिनय से उनका जलवा अब भी बरकरार है। हालांकि सौरभ एक बड़ा चैलेंज पूरा करने के बाद, हर बार उतनी ही बड़ी मुश्किलों से घिरे रहे हैं। फिर भले वह ‘बैंडिट क्वीन’ से ‘सत्या’ के बीच का फासला हो या फिर ‘सत्या’ से लेकर ‘बर्फी’ के बीच भोगे हुए संघर्ष, उनकी मुसीबतें कभी कम नहीं रहीं।

सौरभ शुक्ला अभी अपने 58वें साल में हैं यानी फिलहाल उनके जीवन का दूसरा सैटर्न रिटर्न चल रहा है। यह सैटर्न रिटर्न उनके लिए क्या सौगात लेकर आया है? आप उनके जीवन के पहले सैटर्न रिटर्न में झांककर आसानी से उसका अंदाज़ा लगा सकते हैं।

Film actor saurabh shukla5 मार्च, 1963 के दिन गोरखपुर, उ.प्र. में सौरभ शुक्ला का जन्म आगरा घराने की संगीत परंपरा वाले परिवार में हुआ। उनकी मां जोगमाया शुक्ला भारतीय संगीत के इतिहास में पहली तबला वादक के तौर पर जानी जाती हैं तो वहीं उनके पिता शत्रुघन शुक्ला आगरा घराने के स्वर-साधक रहे हैं। सौरभ जब दो साल के थे तभी उनका परिवार गोरखपुर से दिल्ली आ गया, जहां उनकी स्कूलिंग और खालसा कॉलेज से ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई हुई। महज़ 14-15 साल की उम्र में उन्होंने तय कर लिया था कि फिल्ममेकर बनेंगे। इसी के विकल्प के तौर पर 1984 में उन्होंने रंगमंच से जुड़कर उस दिशा में कदम भी बढ़ा लिया। पक्के तौर पर तो नहीं पता लेकिन संभवत: उन्होंने एनएसडी की चयन प्रक्रिया के लिए भी इम्तिहान दिया हो। वह उनके जीवन का 26वां-27वां साल ही था जब मंडी-हाउस के इर्दगिर्द नज़र आने वाले रंगकर्मियों में वह भी शामिल थे, जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिल होने और रंगमंच की दुनिया पर छा जाने का ख़्वाब देखते रहे हैं। लेकिन कई बार ऐसे ख्वाब टूटना भी इंसान के भीतर बैठे कलाकार की सेहत के लिए अच्छा होता है। एनएसडी के चुनिंदा तीस विद्यार्थियों में भले वह कभी शामिल न हो पाए हों पर अपने फन में सौरभ शुक्ला इतने माहिर हो गए कि ‘घासीराम कोतवाल’ और ‘हयवदन’ जैसे प्रसिद्ध नाटकों के कई प्रमुख किरदार निभाते हुए उनकी एक ख़ास पहचान बनती चली गई।

और फिर जैसा कि होता है सारे सद्-मार्ग आखिरकार एक मंजिल पर जा मिलते हैं, वैसे ही 1991 में सौरभ शुक्ला एनएसडी के रंगमंडल में जगह बनाने में कामयाब हो गए। यहां बताना ज़रूरी है कि सौरभ शुक्ला अगर एनएसडी में दाखिला पाने में कामयाब हो भी जाते तब भी संभवत: एनएसडी की पढ़ाई पूरी होने पर 1991 में उनके सामने एनएसडी रेपेटरी ज्वाइन करने का ही एकमात्र विकल्प होता। यानी इतना साफ है कि ज़िन्दगी भी रोड के ट्रैफिक की तरह होती है, जहां कई लोग आपको ओवरटेक करते हुए पता नहीं किस जल्दी में फर्राटे से अपनी बाइक और कारें दौड़ाते नज़र आते हैं लेकिन अगले ही सिग्नल पर सुस्ताते हुए दिख जाते हैं।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल में रहते हुए सौरभ जब बैंडिट-क्वीन में कैलाश के रोल के लिए चुने गए, वह किस्सा भी बहुत दिलचस्प है। दरअसल सीमा बिस्वास भी एनएसडी रंगमंडल में ही थीं और शेखर कपूर उनका एक नाटक देखने आए थे। उस नाटक में सौरभ शुक्ला ने भी एक महत्वपूर्ण रोल निभाया था। नाटक खत्म होने के बाद शेखर कपूर ने उन्हें बुलवाया और बहुत देर तक सिर्फ सौरभ को देखते ही रहे, कहा कुछ भी नहीं। बाद में शेखर के असिस्टेंट तिग्मांशु धूलिया ने उन्हें मुंबई का न्योता दिया। रोल पाकर भी सौरभ की जान सांसत में थी क्योंकि उन्हें जो रोल मिला उसके कोई संवाद नहीं थे। सैट पर इंप्रोवाइज़ करके उन्हें बहुत कुछ डिलीवर करना पड़ा। यही टेक्नीक जॉली एलएलबी-2 के जज वाले किरदार के साथ भी उन्होंने बखूबी निभाई। नतीजा सह-अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के रूप में सबके सामने है।Saurabh-Shukla-Childhood-photoअभिनय के साथ-साथ टीवी और10 फिल्म लेखन और निर्देशन के लिए उन्हें तैयार करने में उनके पहले सैटर्न रिटर्न और उस दौरान भोगे संघर्ष का बड़ा हाथ है। दिल्ली के दिनों अगर सौरभ शुक्ला उस कड़े क्वालिटी टेस्ट से बचकर निकल जाते तो शायद ‘सत्या’ जैसी कल्ट फिल्म के पटकथा लेखक न बन पाते और कल्लू मामा का किरदार भी उनके लिए इतना बड़ा ब्रेक-थ्रू न बन पाता…

सौरभ शुक्ला के जीवन संघर्ष की कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है

गोली मार भेजे में… भेजा शोर करता है…भेजे की सुनेगा तो मरेगा कल्लू…!!!

Pankajj Kourav_Pozitive india

पंकज कौरव की कलम से

(लेखर के बारे में)

स्टोरी टेलर, स्क्रीन राइटर । वर्तमान में मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में फिल्म और वेबसीरीज के लिए संवाद और पटकथा लेखन में सक्रिय।  ‘शनि प्यार पर टेढ़ी नजर’ उपन्यास के लेखक

 

 

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