ये जिंदगी एक रेस है। कोई नाम के पीछे भागता है तो कोई दाम के पीछे, भागते सब हैं लेकिन सिर्फ अपने-अपने स्वार्थ के लिए। साफ शब्दों में कहें तो इस जिंदगी में हर कोई सिर्फ अपने बारे में सोंचता है और अपनी ही जरूरतों को पूरा करने में जिंदगी भर उलझा रहता है। ना तो कोई दूसरों की जिंदगी बेहतर बनाने के बारे में सोचता है और ना ही किसी की मदद के लिए कोई अपनी व्यस्त जिंदगी से थोड़ा समय निकालने की कोशिश करता है। मगर आज पॉजिटिव इंडिया आपको दो ऐसी शख्सियत से मिलाने जा रहा है जिन्होंने अपनी नई सोच से महिलाओं की सदियों पुरानी और सबसे बड़ी समस्या का समाधान तो निकाला ही,साथ ही उन्हें स्वच्छ और स्वस्थ जीवन की राह भी दिखाई।
कबाड़ से कमाल: जिन पुरानी बसों को बेकार समझकर कबाड़ में फेंक दिया जाता है, राजीव और उल्का ने अपनी इनोवेटिव सोच से उन्हीं बेकार बसों को महिलाओं की सहूलियत और सुविधाओं के लिए इस्तेमाल कर साबित किया है कि जहां चाह है,वहां राह है। दुनिया में हर समस्या का समाधान है, बस जरूरत है तो नेक इरादों के साथ एक कदम आगे बढ़ाने की।
पॉजिटिव इंडिया से बात करते हुए राजीव कहते हैं कि पुणे एक घनी आबादी वाला शहर है और यहां पब्लिक टॉयलेट्स की कमी है। जो टॉयलेट्स हैं वो इतने गंदे होते हैं कि उनका इस्तेमाल करना भी मुश्किल हो जाता है। जिसके चलते महिलाओं, खासकर गरीब तबके की महिलाओं को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उनकी इन्हीं दिक्कतों ने मुझे और उल्का को महिलाओं की बेहतरी के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया।
पुणे शहर की गुलाबी बसें महिलाओं के मायूस चेहरे पर मुस्कान बिखेर रही हैं। अब भीड़-भाड़ वाले बाजारों में उन्हें टॉयलेट जाने के लिए भटकना नहीं पड़ता और ना ही संक्रमित शौचालयों का रुख करना पड़ता है।
दरअसल महानगर की श्रेणी में आने वाले पुणे शहर के कई व्यस्त इनाकों में पब्लिक टॉयलेट बनाने के लिए जगह ही नहीं है। लिहाजा आम आदमी की बेसिक सुविधाओं से जुड़ी इस समस्या को हल करने के लिए पुणे महानगर पालिका के तत्कालीन कुणाल कुमार ने एक पहल की थी। इस पहल के लिए उन्होंने उल्का सादरकर और राजीव खेर का सहयोग मांगा था। उल्का और राजीव पहले ही सेनेटरी उद्योग का हिस्सा थे। दोनों ने साल 2006 में साराप्लास्ट प्राइवेट लिमिटेड की शुरुआत की थी। वहीं जब साल 2016 में महानगर पालिका आयुक्त का सहयोग मिला तो दोनों ने मिलकर पुरानी बसों को सुविधाघरो में बदलने का काम शुरू दिया।
मराठी में महिला को ‘ती’ कहते हैं। ‘ती स्वास्थ्य’ का मतलब है- महिलाओं का स्वास्थ्य गृह। इसीलिए इन मोबाइल टॉयलेट्स को ती- स्वास्थ्य गृह का नाम दिया गया है। अब तक राजीव और उल्का महिलाओं के हित के लिए लगभग एक करोड़ रुपए की लागत से एक दर्जन से ज्यादा बसों को सुविधाघर की शक्ल दे चुके हैं। सेनिटेशन इंडस्ट्री से जुड़ी ये दंपति कबाड़ बसों पर नौ से दस लाख रुपये खर्च कर उन्हें सुविधाघर का रूप देती है। इस सुविधाघर में लगे सभी उपकरण सौर ऊर्जा से चलते हैं।
पॉजिटिव इंडिया से बात करते हुए राजीव बताते हैं कि जब पहली बार साल 2016 में उन्होंने पहली बस शुरू की थी, तब कई महिलाओं का मानना था कि ये बस अंदर से काफी गंदी होगी। वहीं कुछ लोगों का ये भी मानना था कि नई टेक्नालॉजी से लेस होने के कारण इसकी सुविधा के बदले ज्यादा चार्ज वसूला जाएगा। जबकि बाकी पब्लिक टॉयलेट की तरह ही इस बस के लिए भी महज पांच रुपये ही लिए जाते हैं।
फिलहाल ती-स्वास्थ्यगृह नाम से 13 बसें पुणे शहर में अपनी सेवाएं दे रही हैं। वहीं कंपनी जल्द ही मुंबई, इंदौर, हैदराबाद, बैंगलुरू, चेन्नई और नागपुर जैसे बड़े शहरों में भी शासन-प्रशासन की मदद से महिलाओं के लिए यह सुविधा मुहैया कराने की तैयारी में है। राजीव का सपना अगले पांच सालों में ऐसी एक हजार बसों को देश के कई और शहरों में शुरू करना है।
जब हम अपने दम पर जमाने की सोच बदलने की कोशिश करते हैं तो हमें दूसरो पर प्रभाव छोड़ने के लिए लीक से हटकर कुछ अलग करने की जरुरत होती है। राजीव खेर औऱ उल्का सादलकर भी आज अपने इनोवेटिव और इफेक्टिव प्रयोग के चलते देश की महिलाओं के लिए बड़ी इंस्पिरेशन बन चुके हैं, जो हर वक्त किसी ना किसी नए प्रयोग और पहल के जरिए आधी आबादी की जिंदगी संवारने में जुटे हुए हैं।
पॉजिटिव इंडिया की कोशिश हमेशा आपको हिंदुस्तान की उन गुमनाम हस्तियों से मिलाने की रही है जिन्होंने अपने फितूर से बदलाव को एक नई दिशा दी हो और समाज के सामने संभावनाओं की नई राह खोली हो।
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