एक महाराणा प्रताप थे जिन्होनें राजस्थान की अपनी मिट्टी के मान और हिफाजत के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी और एक कलयुग के राणा राम हैं, जो बंजर हो चली अपनी मातृभूमि के लिए बीते पचास सालों से हरियाली की लड़ाई लड़ रहे हैं। रेत के जिन टीलों पर रेत ही नहीं थमती, वहां पेड़ों की जड़ें थमना तो दूर की बात है लेकिन हरियाली के इस सिपाही ने अकेले ही अपने जज्बे और दृढ़ं संकल्प के दम पर रेगिस्तान की बंजर जमीन की रंगत बदलने का नामुमकिन सा कारनामा कर दिखाया। राजस्थान का जोधपुर जिला, जहां कभी दूर-दूर तक रेतीले टीलों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता था। पेड़-पौधों का नामोनिशां तक नहीं था। लेकिन आज यहां का नजारा काफी बदल चुका है। ग्रामीण इलाकों में कई मीलों तक अब अलग-अलग प्रजाति के हरे भरे वृक्ष शान से सीना ताने खड़े नजर आते हैं और ये सब मुमकिन हुआ है जोधपुर से 100 किमी दूर बसे एकलखोरी गांव के राणाराम विश्नोई और 50 सालों की उनकी अटूट मेहनत के दम पर।
बचपन में स्कूल गांव से 33 किमी दूर होने के कारण राणाराम स्कूली तालीम तो नहीं ले सके लेकिन प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी की पढ़ाई जरूर सीख ली और ऐसी सीखी कि लोग उन्हें राणाराम की बजाए रणजीताराम (रण या लड़ाई जीतने वाला) कहने लगे।
राणाराम आज भले ही 80 बरस के हो चुके हैं लेकिन 50 साल पहले उन्होंने पेड़ लगाने का जो सिलसिला शुरू किया था, वो आज भी बादस्तूर जारी है। उम्र के इस पड़ाव में भी उनका जुनून और हौंसला कम नहीं हुआ है। राणाराम जहां जाते हैं अपने साथ बीज और पौधे ले जाना नहीं भूलते और रास्ते में पैदल चलते हुए वो यहां-वहां बीज बिखेरते चलते हैं, ताकि नए पौधे उग सकें। इतना ही नहीं वो उनसे मिलने वालों को खुद की नर्सरी में तैयार किए गए पौधे भी उपहार में देना नहीं भूलते।रेगिस्तान की भीषण गर्मी और पानी की कमी भी राणाराम के मनोबल को कभी कम नहीं कर पाई। चिलचिलाती धूप में भी राणाराम मीलों पैदल चलकर दूर-दराज के इलाकों के कुएं से पानी का इंतजाम करते हैं और फिर खुद घड़े को कंधे पर उठाकर पेड़ों को पानी देते हैं। राणाराम अपने जीवन से ज्यादा पर्यावरण का महत्व समझते हैं। यही वजह है कि जिस रेगिस्तान में इंसान बूंद-बूंद पानी के लिेए तरसते हैं, वहीं राणाराम बेहद मुश्किल से मिलने वाला अमूल्य जल वनस्पतियों को नई जिंदगी देने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
राणाराम जी ने बरसों तक इसी तरह अपने कंधे पर पानी लाकर इन वृक्षों को सींचा है। राणाराम जी कहते हैं कि पेड़ उनके लिेए भगवान हैं और उनकी सेवा करना ही उनकी जिंदगी का मकसद है।
राणाराम पहली बारिश होते ही पेड़-पौधों को गांव, खेत-खलिहान, मंदिर, स्कूल और जहां भी जगह मिलती है, रोप देते हैं। वहीं पौधों को मवेशियों से बचाने के लिेए वाकायदा उनकी बाड़ाबंदी करते हैं। फिर तीन-तीन किलोमीटर दूर से ऊंट गाड़ी पर पानी लाकर इन्हें सींचते हैं और अपने बच्चों की तरह देखरेख कर पौधों को पालते हैं। राणाराम अब तक पचास हजार से ज्यादा पेड़-पौधे लगाकर रेगिस्तान की सुखाड़ जमीन में हरियाली के बीज बो चुके हैं।राणाराम अतीत के पन्ने पलटते हुए बताते हैं कि उनका ये सफर कभी आसान नहीं रहा। इन रेगिस्तानी इलाकों को हरा-भरा बनाने का काम बेहद चुनौतीपूर्ण था। कई बार जानवर इन पौधों को खा जाते थे तो कभी तेज गर्मी से पौधे जल जाते। बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और आखिरकार मरूस्थल में हरियाली बिखेरने के ख्वाब को मूर्त रूप देने में कामयाब रहे।
अपने इस फितूर को लेकर राणाराम विश्नोई जी कहते हैं कि धीरे-धीरे खत्म हो रहे पेड़-पौधों को देखकर उन्हें बेहद तकलीफ और पीड़ा होती थी। बार-बार एक ही सवाल परेशान करता था कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में सांस लेना भी मुश्किल हो जाएगा।
राणाजी के मुताबिक वो 17 साल की उम्र में विश्नोई समाज के धार्मिक सम्मेलन में हिस्सा लेने बीकानेर गए थे। इस दौरान सम्मेलन में समाज के सभी लोगों से रेगिस्तान को बचाने की अपील की गई। इन बातों ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला और मैंने सबसे पहला पौधा वहीं लगाने के बाद अपने गांव की बंजर जमीन को फिर से हरा-भरा करने का प्रण लिया और गांव के स्कूल से लेकर खाली पड़ी सरकारी जमीन, मंदिर परिसर यहां तक कि रेतीले टीलों पर भी पौधे लगाना शुरू कर दिया। फिर यह सिलसिला चल निकला। आज इन पेड़ों की वजह से आंधियों में जगह छोड़ने वाले धोरे भी अब बंधने लगे हैं और रेतीली जमीन हरी-भरी हो गई है।राणाराम पिछले कई सालों से एक पांच सौ मीटर ऊंचे और तीन बीघा क्षेत्र में फैले धोरे को हरा-भरा करने में जुटे हैं। साल 1998 में उन्होंने यहां एक हजार पौधे लगाए। बारिश में ये पौधे लहलहाने लगे लेकिन बाद में आंधियों में उखड़ गए। सिर्फ 10-15 पौधे ही बच पाए। इसके बाद 2007 में राणाराम ने दो सौ पौधे लगाए। आंधियों की वजह से लगभग डेढ़ से पौधे फिर उखड़ गए लेकिन राणाराम का हौंसला कम नहीं हुआ और उन्होंने फिर से यहां सात सौ पौधे रोपे हैं। इतना ही नहीं हर रोज अपने घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर इस धोरे पर वो रोजाना पौधों को पानी देने जाते हैं।
राणाराम के प्रयासों के लिए उन्हें कई बार सम्मानित भी किया जा चुका है। साल 2002 में जिला स्तरीय सम्मान के अलावा केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी उन्हें सम्मानित कर चुके हैं।
राणाराम विश्नोईजी को यकीन है कि एक दिन इस धोरे पर भी हरियाली छाएगी, ठीक वैसे ही जैसे आसपास के एक बड़े इलाकों में उनकी मेहनत रंग ला चुकी है। राणाराम ने खुद हरियाली की क्रांति तो छेड़ी ही साथ ही लगातार वो गांव वालों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं। तो वहीं अब ग्रामीण भी राणाराम से प्रभावित होकर इस नेक काम में हाथ बटाने लगे हैं।
आज भी सरकारी मदद का इंतजार…
बंजर ज़मीन की रंगत बदलने वाले पर्यावरण प्रेमी राणाराम कहते हैं कि उन्होनें सालों तक अपने कंधों पर पानी लाकर इन वृक्षों को सींचा है। लेकिन जैसे-जैसे उम्र ढलती गई, बूढ़ी हड्डियों ने भी जवाब देना शुरू कर दिया। ट्यूबवेल और सिंचाई के साधन मुहैया करवाने के लिए कई बार सरकार से प्रार्थना की, मगर अभी तक कोई मदद नहीं मिली।
राजस्थान के जोधपुर जिले के एकलखोरी गांव में रहने वाले 80 साल के राणाराम विश्नोई को भले ही आज की युवा पीढ़ी नहीं जानती, लेकिन अपनी धरती के प्रति उनका अटूट प्रेम और प्रकृति को सहेजने-संवारने का उनका जज्बा, आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरणा देते रहेगा।
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