देश में त्यौहारों का मौसम है। दीवाली की रोशनी हर तरफ बिखर रही है। ऐसे में महामारी के इस बेबस दौर में मन में छाए अंधियारे को मिटाने के मकसद से मैं आपको गहरे अंधेरे की जमीन पर लिखी गई कामयाबी की एक ऐसी अद्भुत और अद्वतीय कहानी सुनाने जा रहा हूं, जो यकीनन इस मुश्किल वक्त में उम्मीद की एक नई किरण बनकर आपको फिर से आगे बढ़ने और चुनौतियों से भिड़ने का साहस देगी।
स्कूल में उसे हमेशा आखिरी बेंच पर बैठने की जगह मिलती थी, इसलिए नहीं कि वह क्लास में सबसे लंबा था। टीचर उसे बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे, इसलिए नहीं कि वह क्लास में पढ़ाई में ध्यान नहीं देता था। पीटी के समय उसे हमेशा बाहर कर दिया जाता था, ऐसा नहीं है कि वह भाग-दौड़ नहीं कर सकता था। क्लास के सभी बच्चे उससे दूर रहते थे, ऐसा नहीं था कि वह अच्छा नहीं था। इस देश के सिस्टम ने कहा कि वह साइंस नहीं पढ़ सकता। आईआईटी ने कहा कि वह एडमिशन नहीं दे सकता। इन सब के पीछे वजह सिर्फ एक थी कि वो नेत्रहीन(ब्लाइंड) था…लेकिन जगह-जगह ठुकराए जाने और क्रूर ताने भी उसका मनोबल नहीं तोड़ सके क्योंकि वो एक रियल फाइटर है। जब आंध्र प्रदेश एजुकेशन बोर्ड ने इंटरमीडिएट में उन्हें मैथ्स, फीजिक्स और केमिस्ट्री पढ़ने की इजाजत नहीं दी तो उन्होंने कानूनी जंग लड़ी और जीत हासिल की। जब आईआईटी ने उनके दृष्टिहीन होने की वजह से उनसे भेदभाव किया तो उन्होंने देश के इस सर्वश्रेष्ठ इंजिनियरिंग इंस्टिट्यूट को अपने ही अंदाज में जवाब दिया। उन्होंने दुनिया की टाप-3 यानि यूएस के नामचीन इंस्टीट्यूट MIT से ग्रैजुएशन किया। जिन्हें पीटी क्लासेज में किनारे किया गया, उन्होंने नेशनल लेवल पर क्रिकेट और शतरंज खेला क्योकि वो एक चैंपियन है…
श्रीकांत कहते हैं कि, ‘मैं नेत्रहीन नहीं था बल्कि मुझे यकीन कराया गया कि मैं नेत्रहीन हूं।’ श्रीकांत का मानना है कि बिना किसी वीजन के तो पूरी दुनिया ही नेत्रहीन है और जिसके पास वीजन है वह नेत्रहीन होकर भी काफी कुछ देख सकता है। श्रीकांत की सफलता जितनी हैरत करती है उतनी ही प्रेरणा भी देती है। अगर लोग अपनी कमियों पर रोना छोड़कर मेहनत करें तो सफलता कोई बड़ी चीज नहीं रह जाती।
जी हां ये कहानी है हैदराबाद के श्रीकांत बोला की। जिसने बड़ी ही कठिनाई से अपना बचपन गुजारा। बचपन में उन्हें ऐसे क्रूर तानों को सुनना पड़ा जो किसी नस्तर की भांति उन्हें चुभ रहे थे। उनके माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके जन्म के समय उनके माता-पिता की कुल आमदनी महज 1600 रुपए ही थी। जब श्रीकांत पैदा हुए तो किसी को खुशी नहीं हुई क्योंकि वो नेत्रहीन थे। उनके रिश्तेदारों, पड़ोसियों और गांव वालों ने तो यहां तक कह दिया कि यह किसी काम का नहीं है, इसे मार दो या किसी अनाथ आश्रम में फेंक दो। लेकिन श्रीकांत के पैरेंट्स ने किसी की एक नहीं सुनी। वहीं समाज ने हर कदम पर श्रीकांत का मनोबल गिराने भरसक कोशिश की लेकिन श्रीकांत ने अपने मजबूत इरादों के दम पर कामयाबी की नई-नई कहानियां लिखकर उनका मजाक उड़ाने वाली दुनिया को आखिरकार गलत साबित कर ही दिया।
बचपन से झेले जाने वाले भेदभाव से निराश होने के बजाय हर एक मुश्किल श्रीकांत को प्रेरित करती रही। श्रीकांत ने अपने मां-बाप को भी कभी निराश नहीं किया और अंधेपन को दरकिनार करते हुए 10वीं की परीक्षा में 90% अंक प्राप्त किये। उनके दिव्यांग होने की वजह से आगे की पढ़ाई के लिये स्कूल प्रबंधन ने उन्हें विज्ञान की पढाई करने से रोक दिया। श्रीकांत ने इस बात को स्वीकार ना करते हुए स्कूल पर केस कर दिया, और 6 महीने बाद केस जीत कर साइंस की पढाई पूरी की। वहीं 12वीं में 98% अंक प्राप्त कर उन्होंने हर उस इंसान को करारा जबाव दिया जिन्होंने उन्हें पढ़ने से रोका था।
श्रीकांत साइंस पढ़ना चाहते थे लेकिन नेत्रहीन होने के कारण उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी गई। श्रीकांत ने भी हार नहीं मानी। कई महीनों तक लड़ाई लड़ने के बाद आखिरकार श्रीकांत देश के पहले नेत्रहीन बने, जिन्हें 10वीं के बाद साइंस पढ़ने की इजाजत मिली।
श्रीकांत की जिंदगी में परेशानियों का सिलसिला यहीं नहीं थमा। इंजीनियरिंग की पढाई के लिये जब उन्होंने आईआईटी में दाखिला लेना चाहा, तो उन्हें एंट्रेंस परीक्षा के लिये प्रवेश पत्र ही नहीं दिया गया। श्रीकांत हार नहीं माने और स्कॉलरशिप पर पढ़ाई करने के लिये यूएस के टॉप-3 स्कूलों एमआईटी, स्टैनफॉर्ड, बेर्कली और कार्निज मेलन में चुने गए। आखिर में उन्होंने एमआईटी में दाखिला लेकर पहले अंतर्राष्ट्रीय ब्लाइंड स्टूडेंट का तमगा हासिल किया और MIT में पढ़ने वाले भारत के पहले नेत्रहीन स्टूडेंट बने।
अमेरिका में पढ़ाई के बाद श्रीकांत देश के लिए कुछ करना चाहते थे। लिहाजा 2012 में MIT से ग्रेजुएशन पूरा होने के बाद वो भारत वापस आए और एक एनजीओ ‘समनवई’ की शुरूआत कर दिव्यांगों के हित के लिये काम करना शुरू कर दिया। ब्रायल साक्षरता पर उन्होंने ज़ोर दिया, और डिजिटल लाइब्रेरी की स्थापना की। साथ ही ब्रायल प्रिंटिंग के लिये प्रेस शुरू किया। इन सबकी सहायता से अब तक 3000 ब्लाइंड बच्चों को साक्षर बनाया जा सका है, और उनकी उच्चतम शिक्षा पर काम जारी है।
श्रीकांत कहते हैं, ‘मैं किसी और के लिए काम नहीं कर सकता। यह मेरे खून में ही नहीं है। नि:शक्तता सिर्फ मन का वहम है, शरीर का नहीं। हमारा दिमाग ऐसा बना हुआ है कि जब उसके सामने मुश्किल परिस्थितियां आती हैं तभी वह बेहतर काम करता है। मैंने अपनी जिंदगी में काफी मुश्किलों और परेशानियों का सामना किया। अब यही परेशानियां मेरी आदत का हिस्सा बन चुकी हैं।
भारत वापस आने के बाद साल 2012 में श्रीकांत बोला ने बोलेंट कंपनी की स्थापना की। जिसमें इको-फ्रेंडली चीजें बनाई जाने लगीं और खास दिव्यांगों को नौकरी दी गई। बोलेंट इंडस्ट्रीज के 7 मैन्यूफैक्टरिंग यूनिट्स हैं। कंपनी की आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक स्थित यूनिटों में पत्तियों और इस्तेमाल किए गए कागज से ईको-फ्रेंडली पैकेजिंग बनाई जाती है। 2012 से ही बोलैंट इंडस्ट्रीज 20 प्रतिशत मासिक की दर से विकास कर रही है। आज कंपनी की 7 फैक्ट्रियों से 10 करोड़ रुपए महीने की बिक्री होती श्रीकांत बिना आंखों के एक दूरदर्शी व्यक्ति साबित हुए हैं अपनी कोशिशों से और उन्हें साथ मिला इन्वेस्टर रवि मान्था का। इसके बाद रतन टाटा ने भी श्रीकांत के प्रयासों से प्रभावित होकर एक खास रकम देखकर उनके फैक्ट्री और एनजीओ की मदद की।
श्रीकांत ने देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ लीड इंडिया प्रोज्कट पर भी काम किया, जिसके ज़रिये युवाओं के बीच वैल्यू-बेस्ड पढ़ाई को और मज़बूत किया गया।
हैरानी की बात है जिस भारतीय व्यवस्था ने श्रीकांत के साथ भेदभाव किया और बड़े संस्थानों में एडमिशन देने तक से इनकार कर दिया वही श्रीकांत आज अमेरिका की मोटी तनख्वाह वाली नौकरी ठुकराकर भारत लौट आया और देश के विकास में योगदान दे रहा है। श्रीकांत का हमेशा से यही सोचना रहा है कि कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे लोगों को रोजगार मिल सके।
श्रीकांत ने हैदराबाद के पास 8 लोगों के साथ एक कमरे से छोटी सी कंपनी की शुरुआत की थी। फिलहाल उनकी कंपनी में चार हजार लोग काम कर रहे हैं। उनकी कंपनी आने वाले समय में 8 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार देगी। खास बात यह है कि उनकी कंपनी में 70 फीसदी लोग नेत्रहीन और अशक्त हैं। इन लोगों के साथ ही वो खुद भी रोजाना 15-18 घंटे काम करते हैं। अपनी सक्सेस के बारे में श्रीकांत का कहना है कि जब दुनिया कहती थी, यह कुछ नहीं कर सकता तो मैं कहता था कि मैं सब कुछ कर सकता हूं।
100 करोड़ की कंपनी के मालिक 28 साल के श्रीकांत शुरू से ही जज्बे वाले इंसान रहे हैं। बड़ी से बड़ी चुनौतियों के सामने जहां सामान्य इंसान भी हार मान जाते हैं वहीं दृष्टिहीनता के बावजूद श्रीकांत जिंदगी में आने वाली वह हर चुनौती का डटकर सामना करते रहे हैं। श्रीकांत जैसे लोग जीवन में न सिर्फ नए अध्याय गढ़ते हैं बल्कि दुनिया में विरले भी होते हैं, जो अपनी अक्षमता के बावजूद दुनिया को अपने मन की आंखों से देखते हैं।
श्रीकांत का मानना है कि दया, ट्रैफिक सिग्नल पर किसी भिखारी को पैसा देना बिल्कुल नहीं है, बल्कि किसी को जीने का तरीका सिखाना और कुछ कर दिखाने का मौका देना है।
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Nice one👌
Suicide of every young person is always not easy to understand. Marabel Say Nassi