असल जिंदगी की कुछ कहानियां ऐसी होती हैं, जो हमें सपनों पर यकीन करना सिखाती हैं। जिंदगी के पथरीले सफर में पहाड़ सी परेशानियों को परास्त कर आगे बढ़ना सिखाती हैं। हमारी आज की कहानी भी संघर्ष से टूटकर बिखरने के बजाय, संघर्ष से लड़कर निखरने की कहानी है। ये कामयाबी की वो कहानी है जिसका ताना-बाना कड़ी मेहनत, बड़ी शिद्दत और लगन से बुना गया है। जी हां ये एक छोटे से गांव में बेहद गरीब परिवार में जन्मे एक साधारण शख्स के असाधारण संघर्ष और अदम्य साहस की अनसुनी दास्तां हैं।
संघर्षों से उपजे सपने किसी सहारे के मोहताज नहीं होते। गिरधर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। बचपन से ही सरकारी नौकरी का ख्वाब देखने वाले गिरधर का पूरा बचपन और जवानी बेहद अभाव और गरीबी में बीती, कई बार घर में खाने के लिए दाने-दाने तक के लाले पड़ गए, मुफलिसी के तमाम रंग देखे लेकिन कुछ भी इन्हें अपने ख्वाबों तक पहुंचने से नहीं रोक सका।
गिरधर सिंह रांदा का जन्म भारत-पाकिस्तान के बार्डर पर बसे राजस्थान के बाड़मेर जिले के उण्खडा गांव में हुआ। जहां घर के नाम पर सिर्फ एक छोटी सी झोपड़ी हुआ करती थी। पिताजी पूरी तरह शराब की लत में डूब चुके थे और बड़ा भाई दोनों पैरों से विकलांग था। लिहाजा कई-कई रोज घरवालों को दो जून की दाल रोटी तक नसीब नहीं होती थी। आलम ये था कि कई बार पेट की आग बुझाने के लिए लाल मिर्च कूटकर और नमक-पानी मिलाकर उसमें रोटी डुबाकर खानी पड़ती थी। उस वक्त फल और सब्जी खाना किसी ख्वाब से कम नहीं था। बचपन से ही अभावों का सामना करने वाले गिरधर को अपनी जरूरतें की चीज भी खुद मेहनत मजदूरी करके जुटानी पड़ती थी। आसपास के बच्चों की पुरानी फटी ड्रेस और सीमेंट के बोरे को काटकर बनाई गई थैली में किताबें भरकर स्कूल जाना पड़ता था।
गिरधर अपने बचपन के दुखभरे दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि रेगिस्तान की तपती हुई रेत, आग उगलती गर्मी और 50 डिग्री के तापमान में भी उन्हें नंगे पैर स्कूल जाना पड़ता था। पैरों में बड़े-बड़े छाले हो जाते फिर भी वो नंगे पैर स्कूल जाते। 9वीं और 10वीं में स्कूल से आने के बाद कभी आइसक्रीम बेचा करता तो कभी सब्जी का ठेला लगाया करता। क्योंकि मुझे पढ़ना था आगे बढ़ना था लेकिन मेरे घरवाले पढ़ाई का खर्चा उठाने में सक्षम नहीं थे। गिरधर कहते हैं कि बेहद छोटी उम्र से ही एक बात मैं अच्छी तरह समझ गया था कि पढ़ाई ही हमारी बंद किस्मत के दरवाजे खोल सकती है।
गिरधर की जिंदगी में चुनौतियां यहीं खत्म नहीं हुई। इस बीच पहले दादी और एक चाचा और फिर दूसरे चाचा ने भी सुसाइड कर लिया। जिसे लेकर पूरे परिवार में गम का माहौल और निराशा की लहर दौड़ गई। गिरधर बताते हैं कि इस दौरान उनके पापा ने उन्हें कई बार पढ़ाई-लिखाई छोड़ काम पर जाने की हिदायत दी ताकि घर में कुछ पैसे आ सकें। लेकिन गिरधर के दिमाग में तो बस एक ही बात चलती रहती कि मुझे अच्छे से पढ़ लिखकर एक अच्छी सरकारी नौकरी हासिल करना है इसके लिए चाहे कितनी भी मेहनत और करनी पड़े।
गिरधर कहते हैं कि मुझे आज भी अच्छी तरह याद है जब सारे बच्चे गर्मी की छुट्टियां मनाने अपने नाना-नानी के घर जाया करते थे तब मैं चार पैसे कमाने की चाहत में शहर जाकर दुकानों में सामान उठाने का काम करता था। कभी कपड़े की फैक्ट्री में तो कभी दूसरे कारखाने में सुबह 7 बजे से रात 11 बजे तक काम करता। इन सबके बावजूद मन में एक बात बिल्कुल स्पष्ट थी कि कुछ भी हो जाए सरकारी नौकरी पाना है। 12वीं और ग्रेजुएशन के बाद जो भी सरकारी नौकरी निकलती,उसकी परीक्षा देता लेकिन हर बार किस्मत धोखा दे जाती। इस बीच घर में एक और दुखद घटना घटी और बड़े भाई ने भी जिंदगी से तंग आकर मौत को गले लगा लिया। इससे पहले भी घर के तीन सदस्य सुसाइड कर चुके थे। इस घटना ने मुझे अंदर से पूरी तरह तोड़कर रख दिया। कुछ समझ नहीं आ रहा था ये सब हमारे साथ ही क्यों हो रहा है। आखिर भगवान हमारी और कितनी परीक्षा लेगा। मेरे मन में भी आत्महत्या के ख्याल आने लगे।
इस घटना ने गिरधर को भारी सदमा तो पंहुचाया लेकिन उन्होनें अपनी हिम्मत को टूटने नहीं दिया। गिरधर ने अपनी खाली जेब देखी, घर के खाली बर्तन देखे, बूढ़े माता-पिता के चेहरे पर चिंता की बड़ी-बड़ी लकीरें देखीं तो उन्हें अपनी अंतर्आत्मा से जवाब मिल गया और गिरधर ने संकल्प लिया कि वो खुदकुशी की सोचने की बजाए अपनी मेहनत से हालात बदलकर रख देंगे। खाली बर्तनों को खाने से भर देंगे, कच्ची झोपड़ी को मकान में तब्दील कर देंगे और माता-पिता की चिंता की लकीरों को खुशियों में बदल देंगे।
वो कहते हैं ना कि सपनों को पाने के लिए ज़िद ज़रूरी है। सपनें छोटे हो या बड़े अगर आप उन्हें हासिल करने की ज़िद पाल लेते हैं तो हर राह आसान हो जाती है। हर चुनौती से लड़ने की हिम्मत आ जाती है। गिरधर के सपनों की कहानी भी कुछ ऐसी है। जिंदगी में आने वाली तमाम मुसीबतों से लड़ते हुए गिरधर एक बार फिर मेहनत की राह पर चलते हुए सरकारी नौकरी की तैयारी में जुट गए। कई सारे फार्म भरे लेकिन सभी परीक्षाओं में असफल रहे। लगातार कई प्रतियोगी परीक्षाओं में नाकामयाबी से निराश गिरधर को लगने लगा जैसे फैक्ट्रियों में मजदूरी करना और दूसरों के लिए खाना बनाना ही उनकी जिंदगी है।
मुसीबतें हमारी जिंदगी का एक हिस्सा या फिर यूं कहें कि एक कड़वा सच हैं। कोई इस बात को समझकर दुनिया से लोहा लेता है तो कोई पूरी जिंदगी इस बात का रोना रोता है। जिंदगी के हर मोड़ पर मिलने वाली इन मुश्किलों को देखने का हर किसी का अपना एक अलग नजरिया होता है। कई लोग जिंदगी की राह में आने वाले इन मुसीबतों के पहाड़ के सामने टूटकर बिखर जाते हैं तो कई लोग इन चुनौतियों से भिड़कर दूसरों के लिए नया मार्ग खोल जाते हैं। गिरधर सिंह रांदा भी एक ऐसी ही शख्सियत हैं।
कुछ महीनों बाद जब इसका रिजल्ट आया तो 21 बार प्रतियोगी परीक्षाओं में हारने वाला गिरधर सिंह रांदा इस बार हार को हराकर विलेज डवलेपमेंट ऑफिसर के पोस्ट पर सलेक्ट हो चुका था। ये कामयाबी गिरधर जैसे गरीब परिवार के लड़के के लिए बहुत बड़ी बात थी। जिसने अपने परिवार में चार लोगों को मौत को गले लगाते देखा, जो लड़का नंगे पैर स्कूल जाता था, जिसे कभी भरपेट खाना नसीब नहीं होता था, जिसने अपनी जिंदगी किताबों और फैक्ट्रियों में काम करते हुए काटी, आज वो लड़का मिसाल बन चुका था दूसरों के लिए।
अपने सपने को पूरा करने के दौरान गिरधर करीब 21 बार सरकारी परीक्षा में फेल हुए लेकिन उन्होनें हर हार के बाद अपनी मेहनत को दोगुना कर दिया और आज वो ग्राम विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।
सपनों की कीमत और अहमियत क्या होती है, अगर आपको समझना है तो बस एक बार राजस्थान के बाड़मेर जिले के छोटे से गांव उण्डखा से ताल्लुक रखने वाले मेरे भाई गिरधर सिंह से मिल लीजिए। हालात और किस्मत का रोना भूलकर अपनी मेहनत के बूते सपनों को सच की सूरत में कैसे ढाला जाता है
Kya kahu girdharsa Aapke bare me
Aapki तारीफ karne के liye सब्द भी कम पड़ रहे है
आपकी जिंदगी के हर मोड़ से में वाकिफ हूं अपना तो बचपन भी साथ में गुजरा है
सैल्यूट सर