जिंदगी एक कहानी है। हर कहानियों में रंग, कहीं फीके तो कहीं गाढ़े रंग, उदासी और उत्साह के रंग। ये हम सबकी जिंदगी में होता है। हम चलते हैं, गिरते हैं, उठते हैं और जिंदगी आगे बढ़ती जाती है। बस फर्क इतना होता है कि कुछ लोग जिंदगी में आई मुश्किलों से टूट जाते हैं तो कुछ मुसीबतों की आंखों में आंखे डाल भिड़ जाते हैं। विपरीत हालातों में भी अपने हौसले, अदम्य साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति के जरिए वो जीत जाते हैं और उदाहरण बन जाते हैं हम सभी के लिए। हमारे इर्द-गिर्द ही ऐसे लोग हैं, जिन पर मुसीबतों का पहाड़ टूटा, मदद के सारे दरवाजे बंद हो गए लेकिन वो रुके नहीं बल्कि आगे बढ़ते गए। असल मायने में दुनिया को ऐसे लोगों ने ही गढ़ा है और ऐसे लोग ही जिंदगी को ज्यादा मायनेदार बना रहे हैं। हमारी आज की कहानी भी एक ऐसी ही शख्सियत की है जो यकीनन बुरे वक्त में हर हिंदुस्तानी को आगे बढ़ने का हौंसला देती है।
सपनों की कोई सीमा नहीं होती, तमाम तोहमतों के बावजूद हसरत कभी कम नहीं होती। अड़चनों की आंधियां और तकलीफों के तूफान को भी हुनर और हौसलों की बयार के आगे अपना रुख बदलना पड़ता है। हमारे आज के नायक के जीवन संघर्ष की कहानी इन लाइनों को शब्द दर शब्द सच साबित करती है। इस कहानी को सामने लाने का मकसद भी सिर्फ यही है कि आज देश के युवा सीख सकें कि जिंदगी के पथरीले सफर में सपनों का पीछा कैसे किया जाता है।
जी हां ये कहानी है अपने पहाड़ से हौंसले के बूते जिंदगी की हारी बाजी को जीतने वाले आईएएस रमेश और उनके अदम्य साहस की। जो साबित करती है कि कामयाबी के लिए अच्छे हालात नहीं, हौंसले जरूरी होते हैं। विकलांग होने के बावजूद 10 साल की उम्र तक अपनी मां के साथ चिलचिलाती धूप और कड़कड़ाती ठंड में गांव-गांव घूमकर चूड़ियां बेचीं, बचपन में ना रहने के लिए घर था, न पढ़ने को किताब, जवानी से पहले ही पिता का साया भी सिर से उठ गया, मुफलिसी के तमाम रंग देखे लेकिन कुछ भी इन्हें अपने ख्वाबों तक पहुंचने से नहीं रोक सका। जिंदगी ने हर मोड़ पर कठिन परीक्षा ली लेकिन रमेश कभी मंजिल से भटके नहीं, हिमालय से अडिग रहे अपने लक्ष्य पर।
झारखंड कैडर के आईएएस अधिकारी और कोडरमा कलेक्टर रमेश घोलप की जिंदगी कई संघर्षो को समेटे है। महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वारसी तहसील के महागांव में जन्में रमेश घोलप के सपने भी कुछ ऐसे थे कि नन्ही उम्र में ही नींद ने उनका साथ छोड़ दिया था। बचपन में जब बाकी घरों के बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हुआ करते थे, तब रोटी के संघर्ष में रमेश और उनकी मां गर्मी-बरसात और जाड़े से बेपरवाह होकर नंगे पांव चूड़ियां बेचने निकल जाया करते थे। रमेशजी के पिता गोरख घोलप साइकिल की दुकान चलाते थे और शराब पीने के आदी थे। चार लोगों का परिवार था, लेकिन सारी कमाई शराब की भेंट चढ़ जाती थी। घर का गुजर बसर भी बड़ी मुश्किल से चल रहा था। इस बीच एक और मुसीबत ने दस्तक दी और डेढ़ साल के रामू के बाएं पैर में पोलियो हो गया लेकिन फिर भी उसने अपने भाई के साथ मिलकर मां के काम में हाथ बंटाने का काम जारी रखा।
दुनिया में ज्यादातर लोग विपरीत परिस्थितियों के सामने टूट जाते हैं, लेकिन रमू/रमेश तो चुनौतियों से लड़ने के लिए ही पैदा हुए थे। छोटी उम्र में घर की बड़ी जिम्मेदारी ने उन्हें समय से काफी पहले ही परिपक्व बना दिया था।
रमेशजी का बचपन विकलांगता और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच दबकर रह गया था बावजूद इसके उन्होंने कभी हार नहीं मानी और बुरे हालातों का डटकर सामना किया। गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने के बाद रमू को बड़े स्कूल में पढ़ने के लिए अपने चाचा के गांव बरसी जाना पड़ा। इस बीच साल 2005 में 12वीं की पढ़ाई के दौरान उनके पिता का निधन हो गया। लेकिन बदनसीबी देखिए उस वक्त अपने पिता की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए बरसी से महागांव तक जाने के लिए बस का किराया 2 रुपए तक रमू के पास नहीं था। हालांकि पड़ोसियों की मदद से वो किसी तरह पिता के अंतिम संस्कार में शामिल हुए। पिता की मौत का उन्हें बड़ा सदमा लगा जबकि चार दिन बाद ही उन्हें मुख्य परीक्षा में शामिल होना था। मां ने पिताजी की मौत के तीसरे दिन ही बेटे को परीक्षा देने भेज दिया, यह कहते हुए कि घर के हालात बदलना है तो तुम्हें पढ़ना होगा। मां की हौंसला अफजाई के बाद उन्होंने फिर से खूब मेहनत की और 12वीं की परीक्षा में 88.5 प्रतिशत अंक हासिल कर अपनी प्रतिभा को साबित किया। रमेश शिक्षा की अहमियत को भलि-भांति जानते थे और यह भी जानते थे कि शिक्षा के जरिए ही वो अपने परिवार को गरीबी के दलदल से बाहर निकाल सकते हैं। वहीं मां दिन भर दूसरे के खेतों में काम करती, रेहड़ी लगाती, तब जा कर चंद पैसे हाथ पर आते जिससे दोनों बेटों की परवरिश होती।
कहते हैं प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलकर सफलता तक जाने वाली हर यात्रा अद्भुत, अनोखी और अद्वितीय होती है। सवाल इस बात का नहीं होता कि आप आज क्या हैं, क्या कर रहे हैं, क्या उम्र और समय है। बस एक हौंसला चाहिए, जीवन की लहरों में तरंग तभी पैदा होगी जब आप वैसा कुछ करेंगे।
रमेशजी आगे कहते हैं कि जब आप आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होते हैं, तो जिंदगी हर घड़ी आपकी कठिन परीक्षा लेती है। मैंने वह दिन भी देखे हैं, जब घर में अन्न का एक दाना भी नहीं होता था। फिर पढ़ाई में खर्च भी बहुत बड़ी मुसीबत थी।‘महागांव’ में रमू की सच्चाई बच्चा-बच्चा जानता है। तंगहाली के दिनों में मैंने दीवारों पर नेताओं की घोषणाओं, दुकानों का प्रचार, शादियों में सजावट और पेंटिंग्स भी की है। इन सब से जो कुछ भी आय होती थी, वह पढ़ाई और किताबों पर खर्च करते थे। एक बार मां को सामूहिक ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के नाम पर 18 हजार रुपये का ऋण मिला, जिसका इस्तेमाल उन्होंने मेरी पढ़ाई पर किया और हम गांव छोड़ कर इस इरादे से बाहर निकले कि कुछ बन कर ही घर लौटेंगे।
रमेश घोलपजी 12वीं में अच्छे अंक लाने के बाद डीएड की पढ़ाई करना चाहते थे ताकि उन्हें जल्द से जल्द शिक्षक की नौकरी मिल सके और वो घर की आर्थिक तंगी दूर कर सकें। डीएड की पढ़ाई के साथ ही उन्होंने ओपन यूनिवर्सिटी में आर्ट से स्नातक की डिग्री भी हासिल की और फिर साल 2009 में शिक्षक की नौकरी की। भले ही शिक्षक की नौकरी उनके परिवार के लिए सपनों के सच साबित होना जैसा थी, मगर हकीकत में रमेशजी का सपना कुछ और ही था। रमेशजी गरीबों की मदद करना चाहते थे, समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना चाहते थे जो कि एक शिक्षक के लिए बेहद मुश्किल काम था। लिहाजा उन्होंने समाज और सिस्टम की इन बुराइयों को मिटाने के लिए खुद को सक्षम बनाने का फैसला लिया। हालांकि सरकारी शिक्षक की नौकरी छोड़ना रमेश और उनके घरवालों के लिए भी एक बेहद कठिन फैसला था लेकिन रमेशजी के मुक्कदर में तो कुछ और ही लिखा था।
जब 2010 में हम लोगों के पास रहने के लिए खुद का घर नहीं था, तब मैंने टीचर की सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय लिया। उस समय भी मां मेरे निर्णय के पीछे खड़ी रही। ‘हम लोगों का संघर्ष और कुछ दिन शुरू रहेगा, लेकिन तुम्हारा जो सपना है उसके लिए तू पढ़ाई कर’ यह कहकर मेरे ऊपर ‘विश्वास’ दिखाने वाली मेरी ‘आक्का’ (मां) पढ़ाई की दिनों में सबसी बड़ी प्रेरणा थी। सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दिनों में जब भी पढ़ाई से ध्यान विचलित होता था, तब मुझे दूसरों के खेत में जाकर मजदूरी करने वाली मेरी मां याद आती थी।
आखिरकार टीचर की नौकरी छोड़ कलेक्टर बनने का सपना आंखों में संजोए रमेशजी साल 2010 में यूपीएससी की तैयारी के लिए पुणे पहुंचे हालांकि पहले प्रयास में वो विफल रहे। इसी दौरान उन्होंने गरीब और असहाय लोगों की सहायता करने के मकसद से स्थानीय पंचायत चुनाव में अपनी मां श्रीमती विमल घोलप को सरपंच के उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतारा लेकिन उनकी मां कुछ ही मतोंं से चुनाव हार गईं। रमेशजी 23 अक्टूबर 2010 के चुनाव परिणाम की तिथि को अपने जीवन का सबसे बड़ा मोड़ मानते हैं जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इथे थंबने नाही’ में भी किया है। चुनाव की हार से दुखी रमेशजी ने अपने जीवन में हार न मानने की ठान ली और पूरे गांव के सामने ऐलान कर दिया कि वो गांव छोड़कर जा रहे हैं और एक काबिल अफसर बनने के बाद ही वो इस गांव में अपने कदम रखेंगे।
मन में उमंग हो और जीवन में कुछ करने की ललक हो तो अपंगता की अड़चन भी प्रगति में आड़े नहीं आ पाती। इस क्रम में अवरोध तब पैदा होता है, जब निजी अक्षमता को लेकर इंसान अपनी सामर्थ्य को कम करके आंकना शुरू करता है, पर सच्चाई यह है कि उसकी असमर्थता शारीरिक कम, मानसिक ज्यादा होती है और इसे साबित करती आईएस रमेश घोलपजी की अद्भुत कहानी।
रमेशजी बताते हैं कि मुझे कलेक्टर बनना है ऐसा माता-पिता ने कभी नहीं सोचा था। कॉलेज के दौरान राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में काम करते समय लोगों की समस्याओं को करीब से देखा था। इस समय बड़े अधिकारी तो दूर की बात, ग्रामसेवक को मिलने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती थी। हमारी खुद की आधा एकड़ जमीन तक नहीं थी, न खुद का घर था। मां घर-घर घूमकर कंगन-चूड़ियां बेचती थीं। ऐसे विपरीत समय में स्थानीय जनप्रतिनिधि और अधिकारियों से मिलकर ‘इंदिरा आवास योजना’ से एक घर मंजूर हो, इसके लिए विनती करने पर भी मायूसी हाथ लगती थी जबकि दूसरी ओर कई एकड़ खेती के मालिक और गाड़ी लेकर घूमने और अच्छे घर वालों को ऐसी योजना से घर मंजूर होता था, तो मन में गुस्से की आग पैदा होती थी। सरकारी सेवा में गांव में नौकरी करने वाली एक विधवा, वृद्ध महिलाओं से पेंशन दिलाने के बहाने पैसे लेती थी। नसीब को कोसने वाली देहात की ऐसी कई गरीब महिलाएं आर्थिक शोषण का शिकार होती थीं। इन महिलाओं में मेरी मां ‘आक्का’ भी शामिल थी। यह स्थिति बदलनी चाहिए, ऐसा हमेशा लगता था। समाज की इन्हीं बुराईयों ने रमेशजी को अंदर से झकझोर कर रख दिया और फिर उन्होंने इन्हीं बुराईयों से लड़ने की ठान ली थी।
बेल्ट न होने के कारण मेरी पेंट कमर पर फिट करने का जिम्मा करदोड़ा (काला धागा, जो कमर में बांधा जाता है) संभालता था। इस धागे को लकड़ी से फिट कर पेंट कमर में फिट की जाती थी। इस समय ‘डूबते को तिनके का सहारा’ यह मुहावरा मुझपर परफेक्ट लागू होता था। मुझे चप्पल पहनकर चलने में काफी मुश्किल होती थी, शूज लेने की स्थिति न होने के कारण कई साल नंगे पांव चलने का अनुभव भी लिया है। पिताजी की बीमारी के दौरान सरकारी अस्पताल में जाना पड़ता था। वहां भी कई बुरे अनुभवों से गुजरना पड़ता था। कॉलेज के समय में छात्र संगठनों का नेतृत्व करते समय जब मोर्चा या आंदोलन लेकर ज्ञापन सौंपने तहसीलदार ऑफिस जाते थे, तब लगता था कि, ‘तहसीलदार बनना चाहिए’। लोगों के लिए काम करने की कोशिश और जिद ही मेरी प्रशासन में आने की प्रेरणा है और इस प्रेरणा से आखरी सांस तक इमानदार रहूंगा।
रमेशजी बताते हैं कि जब मैंने दूसरी बार ‘कलेक्टर’ का पदभार ग्रहण किया, उसके बाद मां एक दिन ऑफिस में आई। बेटे के लिए अभिमान उनके चेहरे पर स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा था। आईएएस बनने के बाद पिछले 6 साल में उसने मुझे कई बार कहा है, “रामू, जो हालात हमारे थे, जो दिन हम लोगों ने देखे हैं, वैसे कई लोग यहां पर भी है। उन ग़रीब लोगों की समस्याएं पहले सुन लिया करो, उनके काम प्राथमिकता से किया करो। ग़रीब, असहाय लोगों की सिर्फ़ दुआएं कमाना, भगवान तुझे सब कुछ देगा”।
संघर्ष की स्याही से जो लिखते हैं इरादों को, उनके मुक़द्दर के पन्ने कोरे नहीं होते’
रमेशजी की कहानी आज हिंदुस्तान के लाखों लोगों की जिंदगी को एक नई दिशा दे रही है। आप इसे एक साधारण बच्चे की असाधारण सफलता की दास्तां मान सकते हैं मगर मेरे लिए रमेश घोलप के असल जिंदगी की कहानी का एक-एक पन्ना उस लाइफ चेंजिंग किताब की तरह है,जिसे पढ़कर विपरीत परिस्थितियों में मेरे अंदर भी एक विश्वास सा जागता है और मुश्किल समय में खुद पर यकीन करने का साहस मिलता है।
हर रोज आपके आसपास और सोशल मीडिया पर नकारात्मक खबरें और उत्तेजना फैलाने वाली प्रतिक्रियाओं के बीच Pozitive India की कोशिश रहेगी कि आप तक समाज के ऐसे हीअसल नायकों की Positive, Inspiring और दिलचस्प कहानियां पहुंचाई जा सकें, जो बेफिजूल के शोर-शराबे के बीच आपको थोड़ा सुकून और जिंदगी में आगे बढ़ने का जज्बा दे सकें।
मैं आपसे बहुत प्रभावित हुआ हूं सर
आपने आज साबित कर दिया कि मनुष्य अपने शरीर से नहीं अपने बुद्धि से अपाहिज होता है अगर लक्ष्य पाना हो तो कड़ी मेहनत और सच्ची लगन होनी चाहिए इन सब बातों को अपने सच कर दिया और अपने मंजिल को पाया आप काबिले तारीफ है सर मैं आपसे बहुत कुछ सीखा और आपके जीवनी को पढ़कर हम सबको अच्छी प्रेरणा मिली
धन्यवाद सर