कौन सरकारी स्कूलों के टीचर की कर्मठता पर सवाल उठाता है? कौन सरकारी स्कूलों की सुविधाओं को बद्तर मानता है? कौन ये कहता है कि किसी सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ते नहीं? जो ये कहता है, उसे एक बार जरूर मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के कटंगी तहसील के उमरी के शासकीय नवीन माध्यमिक स्कूल आना चाहिए और समाज के असल शिल्पकार की भूमिका निभा रहे वहां के एक शिक्षक के समर्पण और प्रयोगात्मक पहल को देखना चाहिए।
‘मैं जीने के लिए अपने पिता का ऋणी हूं, मगर अच्छे से जीने के लिए अपने गुरु का’…आज की इस खास स्टोरी की शुरूआत एपीजे अब्दुल कलाम जी के इस कोट से क्योंकि अंधेरी हो चली शिक्षा की नगरी में आज भी ऐसे शिल्पकार मौजूद हैं जो उम्मीद की किरण दिखाते हैं। बाजारवाद और व्यवसायीकरण की बढ़ती चुनौती के बीच जो आज भी अपने जज्बे और नए वीजन से शिक्षा में रचनात्मक बदलाव ला नौनिहालों का भविष्य रोशन कर रहे हैं। ऐसी ही एक मिसाल हैं कमलेश अमूले, जिन्होंने अपने मजबूत इरादे और सकारात्मक सोच से देहात के सरकारी स्कूल की ना सिर्फ सूरत बदली, बल्कि प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का फिर से सरकारी स्कूल में दाखिला कराने का कारनामा भी बखूबी कर दिखाया।
प्रधान पाठक कमलेश अमूले बताते हैं कि साल 2015 में जब वो में शासकीय नवीन माध्यमिक स्कूल उमरी में आए थे तो उस समय स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या बेहद कम थी। यह गांव बहुत बड़ा है और अधिकांश बच्चे निजी स्कूल की ओर रुख करते हैं। सरकारी स्कूलों में ज्यादातर गरीब तबके के बच्चे ही पढ़ने आते और उन्हें निजी स्कूल की तरह सुविधाएं भी नहीं मिल पाती। लिहाजा उन्होंने सरकारी स्कूल की तरफ पैरेंट्स का रूझान बढ़ाने और स्टूडेंट की संख्या बढ़ाने के लिए इसे मॉडल स्कूल बनाने का संकल्प लिया। और देखते ही देखते चार साल में पूरे स्कूल की तस्वीर बदल डाली।
प्रधान पाठक कमलेश अमूले का मानना है कि आधारभूत संरचना की कमी के कारण सरकारी स्कूल की पढ़ाई प्रभावित होती है और इसका निजी स्कूलों का फायदा मिलता है।
शासन की तरफ से मिडिल स्कूलों को मिलने वाला फंड शैक्षणित गतिविधि के अलावा बाकी के रचनात्मक कार्यों के लिए काफी नहीं होता। लेकिन कहते हैं ना अगर नीति और नीयत सही तो रास्ते खुद ब खुद निकल आते हैं। प्रधान पाठक ने पहले तो खुद के वेतन से गुरूकुल को संवारने की मुहिम शुरू की। रंग-रोगन, फर्श पर टाइल्स और बाकी की व्यवस्था दुरूस्त कर स्कूल की बदलती तस्वीर को सोशल मीडिया में साझा किया। फिर अपनी पहल से सामाजिक सहयोग के जरिए स्कूल का कायाकल्प करने का प्रयास शुरू किया और तिनके-तिनके जुटाकर स्कूल को आदर्श बनाने की दिशा में आगे बढ़ते गए। इस दौरान किसी समाजसेवी संस्था ने एलईडी तो किसी ने कमप्यूटर देकर उनकी मदद की।
छात्रों को विज्ञान की दुनिया करीब से दिखाने और बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए कमलेश हर साल 8वीं पास होने वाले छात्रों को नागपुर के रमन साइंस सेंटर लेकर जाते हैं। बच्चों को साइंस सेंटर विजिट कराने के पीछे उनका मकसद छात्रों को वैज्ञानिक अविष्कारों से रूबरू करा उनमें तकनीकी समझ विकसित करना है।
कमलेश अमूले का हर प्रयास वाकई सराहनीय है। शिक्षा विभाग में ऐसे लोग बिरले ही देखने को मिलते हैं जो अपने फर्ज और शिक्षक के महत्व को समझते हुए खुद को बच्चों की बेहतरी के लिए डेडिकेट कर देते हैं। यही है वो जज्बा जो देश के देहातों में शिक्षा की तस्वीर बदल सकता है।
कमलेश जैसे शिक्षकों के चलते ही भारत को कभी विश्व गुरू का दर्जा हासिल था और आज भी उन जैसे शिक्षकों के जज्बे और समर्पण के कारण ही इस देश के किसी कोने में गुरू-शिष्य परंपरा अपने जीवित स्वरूप में दिखाई देती है, जहां गुरु सबसे पहले अपने शिष्यों के भलाई के बारे में सोचते हैं। आज जरूरत उनसे प्रेरणा लेने की है ताकि देश के बाकी शिक्षक भी शिल्पकार की भूमिका में इस देश के भविष्य को गढ़ सकें और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों की मदद के लिए आगे आ सकें।