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खूल लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी…जी हां ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख देने वाली मर्दानी यानि झांसी की रानी के पराक्रम के बारे में तो हर कोई जानता है। लेकिन इस देश में एक और मर्दानी है। एक ऐसी गुमनाम नायिका जो युद्ध कौशल की एक परंपरागत कला को विलुप्त होने से बचाने के लिए हाथ में तलवार और भाला लिए बीते 7 दशकों से मैदान में डटी हुई है और 77 की उम्र में भी अच्छे-अच्छों को धूल चटाने का दम रखती हैं।

कुछ साल पहले सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें कलारीपयट्ट (मार्शल ऑर्ट से मिलता-जुलता खेल) में 77 साल की एक महिला अपने से लगभग आधे उम्र के एक पुरुष से भिड़ते और उस पर भारी पड़ती नजर आती है। बुजुर्ग महिला की फुर्ती, जोश और साहस ने सभी को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर साबित कर दिया था कि मजबूत इरादों पर उम्र की दीमक नहीं लगती।

ये महिला कोई और नहीं बल्कि केरल के वाटकरा की रहने वाली 77 साल की मीनाक्षी अम्मा हैं, जो भारत के सबसे पुराने कलारीपयट्टू युद्ध कौशल की अग्रदूत प्रतिनिधी हैं और इस पौराणिक कला को बढ़ावा देने के लिए उम्र के इस पड़ाव में भी जी जान से जुटी हुई हैं। आमतौर पर जिस उम्र को महिलाएं अपनी जिंदगी की सांझ मानकर हताश होकर बिस्तर पकड़ लेती हैं, उस उम्र में भी मीनाक्षी अम्मा घंटो प्रैक्टिस और कड़ी मेहनत करती हैं।मीनाक्षी अम्मा ने एक ऐसी कला से अपनी पहचान बनाई है, जो अधिक लोकप्रिय नहीं है। उन्होंने ऐसे समय में कलरीपायट्टू को सीखना शुरु किया जब लड़कियों को इस कला को सीखने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता था। 7 साल की उम्र से उन्होंने गुरु राघवन से इसकी शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी। बाद में 17 साल की उम्र में उन्होंने गुरु राघवन से शादी की। राघवन भी कलारीपयट्टू के विशेषज्ञ माने जाते थे। दोनों ने मिलकर इस युद्धकला के लिए बहुत काम किया है। गुरु राघव अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके सपनों को आज भी मीनाक्षी अम्मा साकार कर रही हैं।

केरल के कालीकट के पास वड़करा में स्थित उनके कलारीपयट्टू स्कूल ‘कदनाथन कलारी संगम’ में कई छात्र इस विधा को सीखते हैं, जिसमें से एक तिहाई से ज्यादा लड़कियां हैं।मीनाक्षी अम्मा कलारीपयट्टू सिखाने के लिए कोई फीस नहीं लेती। 1949 में शुरू हुई यह परंपरा आज भी बादस्तूर जारी है। हीं कलारीपयट्ट की प्रशिक्षक होने के नाते मीनाक्षी अम्मा मीनाक्षी गुरुक्कल (गुरु) के नाम से भी पहचानी जाती हैं।मीनाक्षी अम्मा कहती हैं कि कलारीपयट्टू ने उनकी जिंदगी को हर तरह से प्रभावित किया है। आज 77 साल की इस उम्र में भी वो इसका निरंतर अभ्यास करती हैं। कलारीपयट्टू की एक शिष्या और फिर एक प्रशिक्षक की भूमिका से लेकर इस मार्शल आर्ट विधा के लिए पद्मश्री हासिल करने तक की उनकी यह यात्रा आसान नहीं रही, लेकिन परिवार के साथ और मेरे छात्रों ने मेरी इस यात्रा को यादगार बना दिया है।

कलारीपयट्टू विश्व की पुरानी युद्ध कलाओं में से एक है। मार्शल आर्ट्स से मिलती-जुलती इस कला में लाठी, तलवार और भाले की सहायता से प्रदर्शन किया जाता है। भारत में केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से लेकर  श्रीलंका और मलेशिया तक इस युद्ध कला का प्रदर्शन होता है। कलारीपयट्टू दो शब्दों से मिलकर बना है, पहला कलारी जिसका मतलब स्कूल या व्यायामशाला है। वहीं दूसरे शब्द पयट्टू का मतलब होता है युद्ध या व्यायाम के लिए “कड़ी मेहनत करना”। कलारीपयट्टू का मूल उद्देश्य आत्मरक्षा है। इस युद्ध कला में काफी समर्पण, अनुशासन और प्रतिबद्धता की आवश्‍यकता होती है। प्राचीन कहानियों के अनुसार इस युद्ध कला की शुरुआत परशुराम ने की थी। इस कला में मनुष्य को शरीर और मन दोनों से मजबूत किया जाता है। किवदंतियों के मुताबिक कुंगफू और अन्य मार्शल आर्ट्स की उत्पत्ति भी कलारीपयट्टू से हुई है।

बिना रुके और बिना थके मार्शल आर्ट की इस विधा को जीवित रखने के लिए साल 2017 में मीनाक्षी अम्मा को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से नवाजा जा चुका है। इस कला के लिए पहचान मिलने और पद्मश्री के रूप में सम्मान मिलने पर मीनाक्षी अम्मा कहती हैं, मैं खुद को धन्य समझती हूं और यह पुरस्कार हर लड़की और हर महिला को समर्पित करती हूं, उन्हें यह बताने के लिए कि वो जिंदगी में जो चाहे हासिल कर सकती हैं। 

मीनाक्षी अम्मा मानती हैं कि आज के दौर में लड़कियों के लिए मार्शल आर्ट और भी ज्यादा जरूरी हो गया है। आज के दौर में जब लड़कियों का देर रात घर से बाहर निकलना सुरक्षित नहीं समझा जाता और इस पर सौ सवाल खड़े किए जाते हैं,ऐसे में कलारीपयट्टू ने उनमें इतना आत्मविश्वास पैदा कर दिया है कि उन्हें देर रात भी घर से बाहर निकलने में किसी तरह की झिझक या डर महसूस नहीं होता।मीनाक्षी अम्मा कहती हैं कि मार्शल आर्ट से लड़कियों में आत्मविश्वास पैदा होता है साथ ही इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाने पर रोजमर्रा की मुश्किलों से लड़ने के लिए मानसिक बल भी मिलता है।आधुनिक भारत में कई पारंपरिक विधाए विलुप्त होने के कगार पर हैं, ऐसे में उम्र के इस मुकाम पर भी पौराणिक कला की अस्मिता बनाए रखने के लिए मीनाक्षी का योगदान अनमोल है। जो आज भी कड़ी मेहनत कर रह निस्वार्थ भाव से लोगो की भलाई के लिए इस कला के प्रचार में लगी हुई हैं। अपनी परंपरा और सभ्यता के प्रति हम सभी का एक कर्तव्य है और इसकी प्रेरणा के लिए मीनाक्षी अम्मा एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।

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