डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही है, जो न खाया जा सकता है, न पिया जा सकता है, और न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिक, इंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है।
किसी हिंदी फिल्म का एक बड़ा मशहूर गाना है… तू जहाँ जहाँ चलेगा, मेरा साया भी साथ होगा…लेकिन कभी अपने हमसफर के लिये गाया जाने वाले ये गीत आज के हाईटेक दौर की युवा पीढ़ी और स्मार्टफोन के अटूट रिश्ते पर भी सटीक बैठता है…जिस तरह स्मार्टफोन और इंटरनेट आधुनिक जीवन शैली का सबसे जरूरी हिस्सा बन गए हैं…उसे देखकर तो यही लगता है कि इनके बिना अब युवाओं की जिंदगी की कल्पना भी बेमानी है…जो फोन कभी अमीरी का सूचक समझा जाता था…बाद में वह जरूरी बना और अब तो मजबूरी ही बन गया…मगर मजबूरी बन चुका यही स्मार्ट फोन अब कई गंभीर बीमारियों की जड़ भी बनता जा रहा है…और सबसे ज्यादा युवा मोबाइल फोबिया नाम की इस बीमारी की गिरफ्त में हैं…वाकई कितनी हैरानी की बात है कि आजादी के 6 दशक बाद भी देश में बुनियादी जरूरत कहे जाने वाले जितने शौंचालय नहीं है, उससे भी ज्यादा सुविधा और सहूलियत के साधन कहे जाने वाले ये स्मार्ट फोन मौजूद हैं…सरकारी आंकड़े भी यही गवाही देते हैं की मोबाइल के इस्तेमाल के मामले में आज भारत ने 100 करोड़ से ज्यादा उपभोक्ताओं के साथ चीन को भी पीछे छोड़ दिया है…जबकि एक कमरे में अकेले बैठकर इसी स्मार्ट फोन के जरिए पूरी दुनिया से जुड़ जाने का यही आभास कई बार बेहद खतरनाक परिणाम भी लेकर आता है…
वक्त बदल रहा है…हवा बदल रही है…माहौल बदल रहा है…संवाद का प्रकार और अपनों का व्यवहार बदल रहा है…और इन बदलावों के साथ ही अब बदल रहा है सभ्य और सुविधाभोगी समाज में जीने का अंदाज…क्योंकि इंडिया के डिजिटल और शहरों के स्मार्ट होने के पहले ही लोगों के हाथ लगे स्मार्ट फोन ने जीवन के सारे मायने ही बदल कर रख दिए हैं…अब दिन की शुरूआत अपनों के आशीर्वाद की बजाए स्मार्टफोन के आभासी संसार में अनदेखे अनजाने दोस्तों को स्माईली सेंड करने के साथ होती है…और शाम भी व्हाट्स अप या फेसबुक वॉल पर ही ढल जाती है…लिहाजा स्मार्ट फोन और इंटरनेट पर जरूरत से ज्यादा समय बिताना और अपने परिवार को कम समय देना अब युवाओं की आदत में शुमार हो चुका है…
मोबाइल मासूम बचपन छीन रहा है…स्मार्टफोन मानसिक विकास रोक युवाओं को मनोरोगी बना रहा है…सेल्फी तो मानो नेशनल डिसीज बन गई है…आलम ये है कि आज किसी को सपने में मैसेज की रिंगटोन सुनाई दे रही है…कोई डिप्रेशन का शिकार हो सुसाइडल अटेम्प्ट कर रहा है… तो कोई नींद न आने की समस्या से परेशान है…और तो और मोबाइल-इंटरनेट के मजे लेने के चक्कर में हजारों लोग हर रोज इन मर्जों की चपेट में भी आ रहे हैं….क्योंकि ये कड़वी मगर हकीकत है कि आज ज्यादातर युवा किसी ड्रग या शराब के नशे की तरह ही मोबाइल और इंटरनेट की लत का शिकार हो चुके हैं… इसे मोबाइल फोबिया कहें, मोबाइल एडिक्शन कहें,एग्जाइटी डिसआर्डर या फिर सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चस्का …जो आगे जाकर ब्रेन की गंभीर बीमारी के रूप में विकसित हो रहा है…
क्या आपको रात-रात भर इंटरनेट चलाने की आदत है? क्या घंटों चैटिंग किए बगैर आपका मन नहीं भरता और इस वजह से आप बाकी चीजें भूल जाते हैं? क्या आप उठने के बाद सबसे पहले अपना फोन चेक करते हैं? क्या दोस्तों या अपनों के साथ घूमने जाने पर भी नेट का भूत आपका पीछा नहीं छोड़ता और हर अच्छे बुरे अनुभव को सोशल साइट्स पर आप फौरन ही साझा करते हैं? अगर ऐसा है, तो यह मोबाइल और इंटरनेट एडिक्शन का एक रूप हो सकता है। इसलिए अगर आप ज्यादा लम्बे समय तक मोबाइल का उपयोग करते हैं तो सतर्क हो जाइए क्योंकि इससे आप नोमोफोबिया के शिकार हो सकते हैं,जो स्मैक और अन्य नशे की लत से भी ज्यादा खतरनाक बीमारी साबित हो सकती है।
इंडियन ग्लोबल साइकियाट्रिक इनिशियेटिव की एक रिपोर्ट के मुताबिक:
लाइफ स्टाइल बदलने से मानसिक बीमारियों के कारण भी बदल रहे हैं…आज युवाओं को फेसबुक पर पोस्ट डालने के बाद 15 मिनट के अंदर लाइक या कमेंट्स न मिलें तो उनमें स्ट्रेस की स्थिति पैदा हो जाती है…तीन-चौथाई लोगों में मानसिक रोग 24 साल की उम्र तक शुरू हो जाते हैं…वहीं 50 फीसदी मामलों में मरीज 15 साल के ही होते हैं…एक हालिया रिसर्च भी यही बताती है कि देश के ज्यादातर युवा अपना ज्यादातर समय मोबाइल फोन के साथ बिताते हैं और 16 घंटे में तकरीबन दो सौ बार अपना फोन चेक करते हैं….यानि शराब और ड्रग्स से ज्यादा गंदी लत उन्हें फोन और नेट की होती है…
ये डिजिटल एडिक्शन का ही साइड इफेक्ट है कि आज देश की 73 फीसदी युवा आबादी वर्चुअल दुनिया में खोई हुई है…जिनका सब कुछ लाइक्स और कमेंट से तय होता है.. वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वो भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैं और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलता, तो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है…
देश में निम्हांस, एआईआईएमएस और सर गंगाराम अस्पताल जैसे संस्थानों में मोबाइल की लत के शिकार लोगों के इलाज के लिए खास क्लीनिक हैं.और यहां आने वाले मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है.
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मां-बाप को मोबाइल एडिक्शन का शिकार हो चुके बच्चे के साथ क्वालिटी टाइम बिताना चाहिए. बच्चों को गैजेट्स से दूर रखना चाहिए. कम से कम एक वक्त का खाना अपने बच्चों के साथ खाना चाहिए. मोबाइल और गैजेट्स की लत हटाने के लिए डिजिटल डिटॉक्स की मदद भी ले सकते हैं, यानी कुछ दिनों तक मोबाइल और इंटरनेट से छुट्टी. डिजिटल डिटॉक्स का एक बड़ा फायदा ये है कि छुट्टियां का पूरा मजा आप असली दुनिया में उठाते हैं, मोबाइल की आभाषी दुनिया में नहीं.