उड़ रहीं आंगन से एक-एक कर सारी चिड़िया, मेरा घर-आंगन भी अब अकेला हो गया…
ये कैसी विडंबना है जो सौ साल जीने की दुआ देने वाले संस्कारी समाज में ही आज मौत को अपनाने का चलन दिन-प्रतिदिन किसी फैशन की तरह फैलता जा रहा है। जिंदगी तो हमेशा जिंदा दिली से जीने और आगे बढ़ने के लिए होती है, मगर अफसोस आज मेरे मुल्क मेरे प्रदेश के लोग लगातार जिंदगी की हर जंग हार रहे हैं। कभी सपनों की दौड़ में, कभी नंबरों की होड़ में, कभी अकेलेपन के अवसाद में, कभी असफलता के अंधकार में, कभी प्यार में मिली हार में तो कभी पारिवारिक तनाव में। तनाव हर तरफ जीत रहा है, मौत जिंदगी को मात दे रही है। जिंदगी जिल्लत और जद्दोजहद के भंवर में फंसकर खत्म हो रही है। आत्महत्या’ आधुनिक जीवनशैली का अहम हिस्सा बनते जा रही है। ना बाहरी रिश्तों में सुकून है ना घर के रिश्तों में शांति। पूरा का पूरा सामाजिक ताना-बाना उलझता नजर आ रहा है।
खो गई है जिंदगी यहीं कहीं,ढूंढ रहे हैं मगर मिलती ही नहीं…
इसे देश का दुर्भाग्य कहें, जिंदगी पर भारी दिखावटी दुनिया की खुमारी या फिर आधुनिकता की आंधी की बेरहम साजिश, जो आज जिंदगी जीने का जज्बा ही कमजोर पड़ता जा रहा है, खुद पर से ही भरोसा उठता जा रहा है। तेज रफ्तार से बदलते सामाजिक परिवेश में आत्महत्या का मर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है और इलाज अब भी लापता है। इसे लोगों में लगातार घटती व्यक्तिगत संघर्ष क्षमता और सहनशीलता की नजीर कहें या फिर इंसान में बढ़ते अवसाद का डरावना सबूत, मगर सच यही है की आज खुदकुशी की प्रवृत्ति समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है। जिसकी जद में छात्रों से लेकर नौकरीपेशा और नौजवान से लेकर शादीशुदा इंसान भी आ रहा है।
लिहाजा बढ़ते अवसाद से आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े सोचने पर मजबूर कर रहे हैं आखिर क्यों दुनिया में हर दिन आत्महत्या करने वाले दो हजार एक सौ नब्बे लोगों में हर छठवां शख्स हिंदुस्तान का होता है, क्यों देश में हर रोज हर तीन घंटे में 15 साल से कम उम्र का कोई न कोई बच्चा आत्महत्या करता है, क्यों हर 4 घंटे 12 मिनट में बेरोजगारी और करियर की समस्या की वजह से एक इंसान खुद को ही खत्म कर लेता है, क्यों हर 1 घंटे 57 मिनट में कोई युवक या युवती प्रेम सम्बन्धों को समाज द्वारा नकारे जाने के कारण मौत को गले लगा लेता है और क्यों हर 3 घंटे 25 मिनट में कोई एक छात्र, स्कूल की परीक्षा में फेल होने की वजह से खुदकुशी कर लेता है। हालांकि इससे भी ज्यादा चिंता की बात तो ये है कि देश में खुदकुशी करने वालों में आधे से ज्यादा लोग महज 13 से 30 साल के बीच के ही होते हैं।
हालांकि सवाल सिर्फ चंद मौतों का ही नहीं है…सवाल उस बढ़ती प्रवृत्ति का है, उस माहौल का है, सवाल हताशा की उस हद और निराशा की उस मनोदशा का है, जिस पर आकर अक्सर अलग-अलग वजहों से लोग इस अनमोल जिंदगी को ही अलविदा बोल रहे हैं…सवाल जद्दोजहद के बीच गायब होते जिंदगी जीने के जज्बा का भी है…
क्या जरूरी है कि मौत के बाद सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी? क्या जिंदगी से दूर भागने से तमाम मुश्किलें भी अपने-आप दूर हो जाएंगी? आखिर खुली सोच की यह कैसी कीमत चुका रहे हैं समाज के लोग? क्या बदलते सामाजिक परिवेश में टीवी संस्कृति का बढ़ता प्रभाव और अपनों में सिमटता संवाद तो सुसाइड की वजह नहीं है? वजहें चाहें जो भी हो, लेकिन हर आत्महत्या करने वाले को एक बार, सिर्फ एक बार यह सोचना चाहिए कि क्या उसकी जिंदगी सिर्फ उसकी है? क्या इस जिंदगी पर सिर्फ उसी का हक है? क्या सिर्फ कामयाबी या गुमनामी ही जिंदगी की हद हैं?