हर बार टूटने के बाद मैं फिर सजाती हूं उम्मीदों के रंग विश्वास के कैनवास पर…हर बार हारकर सोचती हूं कुछ नया अपने लिए, चाहती हूं कुछ अच्छा अपने अपनों के लिए…लेकिन पाती हूं खाली हाथ, सूनी आंखें, खोखली बातें, कड़वे अनुभव, फीकी हंसी, गिरता सम्मान,लुटती अस्मत और न्याय का अंतहीन इंतजार…टूटकर बिखर जाती हूं, पर मैं नारी हूं, शक्ति हूं, सत्यम, शिवम और सुंदरम भी…मैं फिर उठती हूं, मैं फिर हंसती हूं, मैं फिर मुस्कुराती हूं, मैं फिर सपने देखती हूं, मैं फिर रंग भरती हूं जीवन के कैनवास पर… मैं फिर गुनगुनाती हूं जीवन का संगीत… कोमलता की आशा में, आत्मविश्वास की भाषा में…कि कभी तो पूरे होंगे मेरे अरमान, और कभी तो मुझे मिलेगा अपने मुल्क में अपने सूबे में अपनी जमीन पर, अपनी हवाओं में, अपने आकाश के नीचे सुरक्षा के साथ सांस लेने का अधिकार…आखिर कौन हूं मैं कोई डूबते सूरज की किरण या आइने में बेबस सी कोई चुप्पी…माँ की आंखों का कोई आँसू या बाप के माथे की चिंता की लकीर…या फिर दुनिया के समुंदर में कांपती हुई सी कोई कश्ती…
हर साल की तरह एक बार फिर ये सवाल आज जिंदा हो गया है…क्योंकि एक बार फिर देश-दुनिया में महिलाओं के सम्मान और अधिकार के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है…महिला सशक्तिकरण को लेकर बड़े-बड़े कसीदे पढ़े जा रहे हैं…आधी आबादी की पूरी आजादी के जोर-शोर के साथ ढेरों दावे किए जा रहे हैं…शिक्षा से लेकर सियासत तक में उनका स्थान सुनिश्चित करने के वादे किए जा रहे हैं…मगर महिला सशक्तिकरण के दावों से टकराती मौजूदा वक्त की सच्चाई कुछ और ही हकीकत बयां कर रही है…वो कह रही है कि 6 दशक से ज्यादा बीत गए हमें आजादी मिले हुए…आजादी परंपराओं को भुला देने की….आजादी सच्चाई को अस्वीकारने की….आजादी किसी लाड़ली के अस्मत को लूट लेने की….आजादी किसी कच्ची कली के खिलने से पहले ही मसल देने की….आजादी आधी आबादी के अरमानों को रौंद देने की…और आजादी औरत को एक खिलौना बनाने की…फिर ये एक दिन का सम्मान का ढोंग क्यों?
आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा था कि महिलाओं की सुरक्षा ऐसी होनी चाहिए कि महिला खुद को अकेली सूनसान सड़कों पर भी बिल्कुल सुरक्षित समझे।
आखिर क्यों घर के अंदर और बाहर महिलाएं खौफ के साए में जीने को मजबूर हैं? जो हर क्षण बर्दाश्त करती है समाज के बहसी दरिदों को…हर पल झेलती है बेचारगी का अहसास कराती ‘सहानुभूति’… जो हर पल उसे याद दिलाती कि ‘भूल मत जाना! ”वैसा” हुआ था तेरे साथ’…हर दिन सहती है अपने शरीर पर टिकी हजारों नापाक नज़रों को…और अपनी हालत पर तरसते हुए सहमते हुए बस यही सवाल करती है आखिर कब होगा इस समाज को प्रायश्चित होगा….कब एक मां अपनी बेटी को दुपट्टा खोल कर ओढ़ने और नज़रें नीची कर चलने की हिदायत देना बंद करेगी…कब कोई बाप अपने बेटे को किसी लड़की को ग़लत नज़र उठाकर न देखने की नसीहत देगा….कब कैंडल जलाने, पोस्टर उठाने, नारे लगाने का दौर थमेगा….और कब लोगों की विकृत मानसिकता में बदलाव आएगा…और कब सरकारें आईने दिखाते इन आंकड़ों को सामने से हटाने की बजाए इनसे सबक लेकर समाज का चेहरा सुधारने की पहल करेंगी…